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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अचेतनः कालः अचेतनो धर्मः अचेतनोऽधर्मः अचेतनः पुद्गलः, चेतनो जीव एवैक इति।।९७।।
जीवा पुग्गलकाया सह सक्किरिया हवंति ण य सेसा। पुग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणा दु।।९८ ।।
जीवा: पुद्गलकाया: सह सक्रिया भवन्ति न च शेषाः। पुद्गलकरणा जीवा: स्कंधा खलु कालकरणास्तु।। ९८ ।।
अत्र सक्रियनिष्क्रियत्वमुक्तम्।
प्रदेशांतरप्राप्तिहेतुः परिस्पंदनरूपपर्यायः क्रिया। तत्र सक्रिया बहिरङ्गसाधनेन सहभूताः जीवाः, सक्रिया बहिरङ्गसाधनेन सहभूताः पुद्गलाः। निष्क्रियमाकाशं, निष्क्रियो धर्म:, निष्क्रियोऽधर्म:, निष्क्रियः कालः। जीवानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्ग- साधनं कर्मनोकर्मोपचयरूपाः पुद्गला इति ते पुद्गलकरणाः।
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पररूपमें प्रवेश द्वारा [-मूर्तद्रव्यके संयोगकी अपेक्षासे ] मूर्त भी है, धर्म अमूर्त है, अधर्म अमूर्त है; पुद्गल ही एक मूर्त है। आकाश अचेतन है, काल अचेतन है, धर्म अचेतन है, अधर्म अचेतन है, पुद्गल अचेतन है; जीव ही एक चेतन है।। ९७।।
गाथा ९८
अन्वयार्थ:- [ सह जीवाः पुद्गलकायाः] बाह्य करण सहित स्थित जीव और पुद्गल [ सक्रियाः भवन्ति] सक्रिय है, [न च शेषाः] शेष द्रव्य सक्रिय नहीं हैं [ निष्क्रिय हैं]; [ जीवाः] जीव [पुद्गलकरणा: ] पुद्गलकरणवाले [-जिन्हें सक्रियपनेमें पुद्गल बहिरंग साधन हो ऐसे ] हैं[ स्कंधाः खलु कालकरणा: तु] और स्कन्ध अर्थात् पुद्गल तो कालकरणवाले [-जिन्हें सक्रियपनेमें काल बहिरंग साधन हो ऐसे ] हैं।
टीकाः- यहाँ [ द्रव्योंका ] सक्रिय-निष्क्रियपना कहा गया है।
प्रदेशान्तरप्राप्तिका हेतु [-अन्य प्रदेशकी प्राप्तिका कारण] ऐसी जो परिस्पंदरूप पर्याय, वह क्रिया है। वहाँ, बहिरंग साधनके साथ रहनेवाले जीव सक्रिय हैं; बहिरंग साधनके साथ रहनेवाले पुद्गल सक्रिय हैं। आकाश निष्क्रिय है; धर्म निष्क्रिय है; अधर्म निष्क्रिय है ; काल निष्क्रिय है।
१। जीव निश्चयसे अमूर्त-अखण्ड-एकप्रतिभासमय होनेसे अमूर्त है, रागादिरहित सहजानन्द जिसका एक स्वभाव
है ऐसे आत्मतत्त्वकी भावनारहित जीव द्वारा उपार्जित जो मूर्त कर्म उसके संसर्ग द्वारा व्यवहारसे मूर्त भी है।
जीव-पुद्गलो सहभूत छे सक्रिय , निष्क्रिय शेष छे; छे काल पुद्गलने करण , पुद्गल करण छे जीवने। ९८ ।
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