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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन [ १४३ आकाशस्वरूपाख्यानमेतत्। षड्द्रव्यात्मके लोके सर्वेषां शेषद्रव्याणां यत्समस्तावकाशनिमित्तं विशुद्धक्षेत्ररूपं तदाकाशमिति।।९०।। जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणण्णा। तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्तं ।। ९१ ।। जीवाः पुद्गलकायाः धर्माधर्मों च लोकतोऽनन्ये। ततोऽनन्यदन्यदाकाशमंतव्यतिरिक्तम्।। ९१।। लोकादहिराकाशसूचनेयम्। जीवादीनि शेषद्रव्याण्यवधृतपरिमाणत्वाल्लोकादनन्यान्येव। आकाशं त्वनंतत्वाल्लोकादनन्यदन्यच्चेति।।९१।। ...................... टीका:- यह, आकाशके स्वरूपका कथन है। षद्रव्यात्मक लोकमें शेष सभी द्रव्योंको जो परिपूर्ण अवकाशका निमित्त है, वह आकाश है- जो कि [आकाश] विशुद्धक्षेत्ररूप है।। ९० ।। गाथा ९१ अन्वयार्थ:- [ जीवाः पुद्गलकायाः धर्माधर्मी चजीव , पुद्गलकाय, धर्म , अधर्म [ तथा काल] [ लोकतः अनन्ये] लोकसे अनन्य है; [अंतव्यतिरिक्तम् आकाशम् ] अन्त रहित ऐसा आकाश [ ततः] उससे [ लोकसे ] [ अनन्यत् अन्यत् ] अनन्य तथा अन्य है। टीका:- यह, लोकके बाहर [ भी ] आकाश होनेकी सूचना है। जीवादि शेष द्रव्य [-आकाशके अतिरिक्त द्रव्य ] मर्यादित परिमाणवाले होनेके कारण लोकसे १। निश्चयनयसे नित्यनिरंजन-ज्ञानमय परमानन्द जिनका एक लक्षण है ऐसे अनन्तानन्त जीव, उनसे अनन्तगुने पुदगल, असंख्य कालाणु और असंख्यप्रदेशी धर्म तथा अधर्म- यह सभी द्रव्य विशिष्ट अवगाहगुण द्वारा लोकाकाशमे -यद्यपि वह लोकाकाश मात्र असंख्यप्रदेशी ही है तथापि अवकाश प्राप्त करते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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