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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[१२३
सव्वेसिं खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाणू। सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागी मुत्तिभवो।। ७७।।
सर्वेषां स्कंधानां योऽन्त्यस्तं विजानीहि परमाणुम्। स शाश्वतोऽशब्द: एकोऽविभागी भूर्तिभवः।। ७७।।
परमाणुव्याख्येयम्।
उक्तानां स्कंधरूपपर्यायाणां योऽन्त्यो भेदः स परमाणुः। स तु पुनर्विभागाभावाद-विभागी, निर्विभागैकप्रदेशत्वादेकः,
मूर्तद्रव्यत्वेन
सदाप्यविनश्वरत्वान्नित्यः, अनादिनिधनरूपादिपरिणामोत्पन्नत्वान्मूर्तिभवः, रूपादिपरिणामोत्पन्नत्वेऽपि शब्दस्य परमाणुगुणत्वाभावात्पुद्गलस्कंधपर्यायत्वेन वक्ष्यमाणत्वाच्चाशब्दो निश्चीयत इति।। ७७।।
गाथा ७७
अन्वयार्थ:- [ सर्वषां स्कंधानां] सर्व स्कंधोंका [यः अन्त्यः ] जो अन्तिम भाग [तं] उसे [ परमाणुम् विजानीहि ] परमाणु जानो। [ सः ] वह [ अविभागी ] अविभागी, [ एकः ] एक , [ शाश्वत:], शाश्वत [ मूर्तिभव: ] मूर्तिप्रभव [ मूर्तरूपसे उत्पन्न होनेवाला ] और [ अशब्द: ] अशब्द है।
टीका:- यह, परमाणुकी व्याख्या है।
पूर्वोक्त स्कंधरूप पर्यायोंका जो अन्तिम भेद [छोटे-से-छोटा अंश] वह परमाणु है। और वह भागके अभावके कारण अविभागी है; निर्विभाग-एक-प्रदेशी होनेसे एक है; मूर्तद्रव्यरूपसे सदैव
नेसे नित्य है; अनादि-अनन्त रूपादिके परिणामसे उत्पन्न होनेके कारण मूर्तिप्रभव है; और रूपादिके परिणामसे उत्पन्न होने पर भी अशब्द है ऐसा निश्चित है, क्योंकि शब्द परमाणुका गुण नहीं है तथा उसका[ शब्दका ] अब [७९ वीं गाथामें ] पुद्गलस्कंधपर्यायरूपसे कथन है।। ७७।।
* मूर्तिप्रभव = मूर्तपनेरूपसे उत्पन्न होनेवाला अर्थात् रूप-गन्ध-रस स्पर्शके परिणामरूपसे जिसका उत्पाद होता है ऐसा ।। मूर्ति = मूर्तपना]
जे अंश अंतिम स्कंधोनो, परमाणु जानो तेहने; ते ओकने अविभाग, शाश्वत, मूर्तिप्रभव, अशब्द छ। ७७।
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