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अस्तिकायों और पदार्थों के निरूपणके पश्चात शास्त्रमें मोक्षमार्गसूचक चूलिका है। यह अन्तिम अधिकार, शास्त्ररूपी मंदिर पर रत्नकलश भाँति शोभा देता है। अध्यात्मरसिक आत्मार्थी जीवोंका यह अति प्रिय अधिकार है। इस अधिकारका रसास्वादन करते हुए मानों उन्हें तृप्ति ही नहीं होती। इसमें मुख्यतः वीतराग चारित्रका-स्वसमयका-शुद्धमुनिदशाका-पारमार्थिक मोक्षमार्गका भाववाही मधुर प्रतिपादन है, तथा मुनिको सराग चारित्रकी दशामें आंशिक शुद्धिके साथ साथ कैसे शुभ भावोंका सुमेल अवश्य होता ही है उसका भी स्पष्ट निर्देश है। जिनके हृदयमें वीतरागताकी भावना का मंथन होता रहता है ऐसे शास्त्रकार और टीकाकार मुनींद्रोंने इस अधिकारमें मानों शांत वीतराग रसकी सरिता प्रवाहित की है। धीर गम्भीर गतिसे बहती हुई उस शांतरसकी अध्यात्मगंगामें स्नान करनेसे तत्त्वजिज्ञासु भावुक जीव शीतलताभीभूत होते हैं और उनका हृदय शांत-शांत होकर मुनियोंकी आत्मानुभवमूलक सहजशुद्ध उदासीन दशाके प्रति बहुमानपूर्वक नमित हो जाता है। इस अधिकार पर मनन करनेसे सुपात्र मुमुक्षु जीवों को समझमें आता है कि 'शुद्धात्मद्रव्यके आश्रयसे सहज दशाका अंश प्रगट किये बिना मोक्षके उपायका अंश भी प्राप्त नहीं होता।
- इस पवित्र शास्त्रके कर्ता श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवके प्रति पूज्य गुरुदेव (श्री कानजीस्वामी) को अपार भक्ति है। वे अनेकों बार कहते है कि – 'श्री समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसंग्रह आदि शास्त्रोकी प्रत्येक गाथामें दिव्यध्वनिका संदेश है। इन गाथाओंमें इतनी अपार गहराई है कि उसे मापते हुए अपनी ही शक्तिका माप निकल आता है। इन सारगंभीर शास्त्रोंके रचयिता परम कृपालु अचार्यभगवानकी कोई परम अलौकिक सामर्थ्य है। परम अद्भूत सातिशय अंतर्बाह्य योगोंके बिना इन शास्त्रोंकी रचना शकय नहीं है। इन शास्त्रोंकी वाणी तरते हुए पुरुषकी वाणी है ऐसा हम स्पष्टजानते हैं। इनकी प्रत्येक गाथा छठे-सातवें गुणस्थानमें झु महामुनीके आत्मानुभवमेंसे प्रगट हुई है। इन शास्त्रोंके रचयिता भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव महाविदेहक्षेत्रमें सर्वज्ञ वीतराग श्री सीमंधरभगवानके समवसरणमें गये थे और वे वहाँ आठ दिन तक रहे थे यह बात यथातथ्य है, अक्षरशः सत्य है, प्रमाणसिद्ध है। उन परमोपकारी आचार्यभगवान द्वारा रचे गये समयसारादि शास्त्रोंमें तीर्थंकरदेवकी ऊँ कारध्वनिमेंसे नीकला हआ उपदेश है।"
इस शास्त्रमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी प्राकृत गाथाओं पर समयमाख्या नामक संस्कृत टीकाके लेखक (लगभग विक्रम संवतकी १० वीं शताद्वीमें हो गये) श्री अमृतचंद्राचार्यदेव है। जिसप्रकार इस शास्त्रके मूल कर्ता अलौकिक पुरुष हैं उसी प्रकार उसके टीकाकार भी महासमर्थ आचार्य हैं; उन्होंने समयसारकी तथा प्रवचनसारकी टीका भी लिखी है और तत्त्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय आदि स्वतंत्र ग्रंथ भी रचे हैं। उनकी टीकाओं जैसी टीका अभी तक अन्य किसी जैन ग्रंथकी नहीं लिखी गयी है। उनकी टीकाएँ पढ़नेवाले उनकी अध्यात्मरसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूपकी न्यायसे सिद्ध करनेकी असाधारण शक्ति, जिनशासनका सातिशय अगाध ज्ञान, निश्चय-व्यवहारका संधिबद्ध निरूपण करनेकी विरल शक्ति एवं उत्तम काव्यशक्तिकी सम्पूणर प्रतीति हो जाती है। अति संक्षेपमें गंभीर रहस्य भर देनेकी उनकी शक्ति विद्वानोंको आश्चर्यचकित कर देती है। उनकी दैवी टीकाएं श्रुतकेवलीके वचन समान हैं। जिस प्रकार मूल शास्त्रकारनके शास्त्र अनुभवयुक्ति आदि समस्त समृद्धिसे समृद्ध हैं उसी प्रकार टीकाकारकी टीकाएं भी उन-उन सर्व समृद्धियोंसे विभूषित हैं। शासनमान्य भगवान कुदकुन्दाचार्यदेने इस कलिकालमें जगद्गुरु तीर्थंकरदेव जैसा कार्य किया है और श्री अमृतचंद्राचार्यदेने -मानों वे कुन्दकुन्दभगवानके हृदयमें प्रविष्ट हो गये हों
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