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अस्तित्वको भी भूल रहा है और पर पदार्थोंको सुखदुःखका कारण मानकर उनके प्रति रागद्वेष करता रहता है; जीवके ऐसे भावोंके निमित्तसे पुद्गल स्वतः ज्ञानावरणादिकर्मपर्यायरूप परिणमित होकर जीवके साथ संयोगमें आते हैं और इसलिये अनादि कालसे जीवको पौद्गलिक देहका संयोग होता रहता है। परंतु जीव और देहके संयोगमें भी जीव और पुद्गल बिलकुल पृथक् हैं तथा उनके कार्य भी एक दूसरेसे बिलकुल भिन्न एवं निरपेक्ष हैं-- ऐसा जिनेंद्रोंने देखा है, सम्यग्ज्ञानियोने जाना है और अनुमानगम्य भी है। जीव केवल भ्रांतिके कारण ही देहकी दशासे तथा इष्ट-अनिष्ट पर पदार्थोंसे अपने को सुखी दुःखी मानता है। वास्तवमें अपने सुखगुणकी विकारी पर्यायरूप परिणमित होकर वह अनादि कालसे दुःखी हो रहा है।
जीव द्रव्य-गुणसे सदा शुद्ध होने पर भी, वह पर्याय-अपेक्षासे शुभाशुभभावरूपमें, आंशिकशुद्धिरूपमें, शुद्धिकी वृद्धिरूपमें तथा पूर्णशुद्धिरूपमें परिणमित होता है और उन भावोंके निमित्तसे शुभाशुभ पुद्गलकर्मोका आस्रवण एवं बंधन तथा उनका रुकना, खिरना और सर्वथा छूटना होता है। इन भावोंको समझानेके लिये जिनेन्द्रभगवंतोअने नव पदार्थोहका उपदेश दिया है। इन नव पदार्थोंको सम्यक्रूपसे समझनेपर, जीवको क्या हितरूप है, क्या अहितरूप है, शाश्वत परम हित प्रगट करनेके लिये जीवको क्या करना चाहिये, पर पदार्थों के साथ अपना क्या सम्बन्ध है-इत्यादि बाते यथार्थरूपसे समझमें आती है और अपना सुख अपनेमें ही जानकर, अपनी सर्व पर्यायोमें भी ज्ञानानंदस्वभावी निज जीवद्रव्यसामान्य सदा एकरूप जानकर, ते अनादि-अप्राप्त ऐसे कल्याणबीज सम्यग्दर्शनको तथा सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करता है। उनकी प्राप्ति होनेपर जीव अपनेको द्रव्य-अपेक्षासे कृतकृत्य मानता है और उस कृतकृत्य द्रव्यका परिपूर्ण आश्रय करनेसे ही शाश्वत सुखकी प्राप्तिमोक्ष-होती है ऐसा समझता है।
सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होने पर जीवको शुद्धात्मद्रव्यका जो अल्प आलम्बन थयुं हो जाता है उससे वृद्धि होने पर क्रमश: देशविरत श्रावकत्व एवं मुनित्व प्राप्त होता है। श्रावकको तथा मुनिको शद्धात्मद्रव्यके मध्यम आलम्बनरूप आंशिक शद्धि होती है वह कर्मोंके अटकने खिरनेमें निमित्त होती है और जो अशुद्धिरूप अंश होता है वह श्रावकके देशव्रतादिरूपसे तथा मुनिके महाव्रतादिरूपसे देखाई देता है, जो कर्मबंधका निमित्त होता है। अनुक्रमसे वह जीव ज्ञानानंदस्वभावी शुद्धात्मद्रव्यका अति उग्ररूपसे अवलंबन करके, सर्व विकल्पोंसे छूटकर, सर्व रागद्वेष रहित होकर, केवलज्ञानको प्राप्त करके, आयुष्य पूर्ण होने पर देहादिसंयोगसे विमुक्त होकर, सदाकाल परिपूर्ण ज्ञानदर्शनरूपसे और अतीन्द्रिय अनन्त अव्याबाध आनंदरूपसे रहता है।
-यह, भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवने पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्रमें परम करुणाबुद्धि-पूर्वक प्रसिद्ध किये गये वस्तुतत्त्वका संक्षिप्त सार है। इसमें जो रीत बतलाई है उसके अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार जीव अनादिकालीन भंयकर दुःखसे छूट नहीं सकता। जब तक जीव वस्तुस्वरूपको नहीं समझ पाता तब तक अन्य लाख प्रयत्नोंसे भी मोक्षका उपाय उसके हाथ नहीं लागता। इसलिये इस शास्त्रमें सर्व प्रथम पंचास्तिकाय और नव पदार्थका स्वरूप समझाया गया है जिससे कि जीव वस्तुस्वरूपको समझकर मोक्षमार्गके मूलभूत सम्यग्दर्शनको प्राप्त हो।
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