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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ८० पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द दर्शनमपि चक्षुर्युतमचक्षुर्युतमपि चावधिना सहितम्। अनिधनमनंतविषयं कैवल्यं चापि प्रज्ञप्तम्।। ४२।। दर्शनोपयोगविशेषाणां नामस्वरूपाभिधानमेतत्। चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनमिति नामाभिधानम्। आत्मा ह्यनंतसर्वात्मप्रदेशव्यापिविशुद्धदर्शनसामान्यात्मा। स खल्वनादिदर्शनावरणकर्मावच्छन्नप्रदेशः सन्, यत्तदावरणक्षयोपशमाचक्षुरिन्द्रियावलम्बाच मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्ये .................... गाथा ४२ अन्वयार्थः- [ दर्शनम् अपि] दर्शन भी [ चक्षुर्युतम् ] चक्षुदर्शन, [अचक्षुर्युतम् अपि च ] अचक्षुदर्शन, [अवधिना सहितम् ] अवधिदर्शन [च अपि] और [अनंतविषयम् ] अनन्त जिसका विषय है ऐसा [ अनिधनम् ] अविनाशी [ कैवल्यं ] केवलदर्शन [ प्रज्ञप्तम् ] – ऐसे चार भेदवाला कहा है। टीका:- यह, दर्शनोपयोगके भेदोंके नाम और स्वरूपका कथन है। [१] चक्षुदर्शन, [२] अचक्षुदर्शन, [३] अवधिदर्शन और [४] केवलदर्शन - इस प्रकार [ दर्शनोपयोगके भेदोंके ] नामका कथन है। [अब उसके स्वरूपका कथन किया जाता है:-] आत्मा वास्तवमें अनन्त, सर्व आत्मप्रदेशोंमें व्यापक, विशुद्ध दर्शनसामान्यस्वरूप है। वह [आत्मा] वास्तवमें अनादि दर्शनावरणकर्मसे आच्छादित प्रदेशोंवाला वर्तता हुआ , [१] उस प्रकारके [ अर्थात् चक्षुदर्शनके ] आवरणके क्षयोपशमसे और चक्षुइन्द्रियके अवलम्बनसे मूर्त द्रव्यको विकलरूपसे सामान्यतः अवबोधन करता है १। सामान्यतः अवबोधन करना = देखना। [ सामान्य अवबोध अर्थात् सामान्य प्रतिभास वह दर्शन है।] Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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