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________________ 32 योगसारप्राभृत शतक योगसारप्राभूत शतक कर्मक्षेत्र में स्वयं कुछ काम न करता हुआ भी नाना प्रकार की धूलि से व्याप्त होता है। उसीप्रकार जिसका चित्त क्रोधादि कषायों से आकुलित है, वह कर्म के मध्य में स्थित हुआ समस्त आरम्भों से रहित होने पर भी कर्मों से व्याप्त/लिप्त होता है। मरणादिक सब कर्म-निर्मित - कर्मणा निर्मितं सर्वं मरणादिकमात्मनः। कर्मावितरतान्येन कर्तुं हर्तुं न शक्यते / / 160 / / आत्मा का मरण-जीवन, सुख-दुःख, रक्षण, पीडन - ये सब कार्य कर्म द्वारा निर्मित हैं। जो कर्म को नहीं देनेवाले ऐसे अन्यजन हैं, उनके द्वारा जीवन-मरणादिक का करना-हरना कभी नहीं बन सकता। कर्ममल से रहित आत्मा निर्बन्ध - युज्यते रजसा नात्मा भूयोऽपि विरजीकृतः / पृथक्कृतं कुतः स्वर्णं पुनः किट्टेन युज्यते / / 509 / / जिसप्रकार किट्ट कालिमारूप मल से भिन्न किया गया शुद्ध सुवर्ण फिर से किट्ट कालिमा से युक्त होकर अशुद्ध नहीं हो सकता; उसीप्रकार जो ज्ञानावरणादि आठों कर्मरूपी रज से रहित हुआ है, वह शुद्ध आत्मा भी फिर से कर्मों से युक्त नहीं होता अर्थात् बंधता नहीं है। . . .
SR No.008392
Book TitleYogasara Prabhrut Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size101 KB
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