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________________ योगसारप्राभृत शतक योगसारप्राभृत शतक (५४) देवेन्द्रों का विषय-सुख भी दुःख ही है - यत्सुखं सुरराजानां जायते विषयोद्भवम् । ददानं दाहिकां तृष्णां दुःखं तदवबुध्यताम् ।।१४३।। (यदि यह पूछा जाय कि देवगति को प्राप्त देवेन्द्रों को तो बहुत सुख होता है फिर देवगति के सभी जीवों को दुःख सहनेवाला क्यों कहा है? तो इसका समाधान यह है कि) देवेन्द्रों को इन्द्रिय-विषयों से उत्पन्न जो सुख होता है वह दाह उत्पन्न करनेवाली तृष्णा को देनेवाला है; इसलिए उसे (वस्तुतः) दुःख ही समझना चाहिए।' सांसारिक सुख को सुख माननेवाला मिथ्याचारित्री है - सांसारिक सुखं सर्वं दुःखतो न विशिष्यते। यो नैव बुध्यते मूढः स चारित्री न भण्यते ।।१४५।। 'संसार का सम्पूर्ण सुख और दुःख - इनमें कोई अंतर नहीं', जो इस तत्त्व को नहीं समझता, वह मूढ़/मिथ्यादृष्टि चारित्रवान नहीं है; ऐसा समझना चाहिए। मोह से बाह्य पदार्थ सुख-दुःखदाता - आत्मन: सकलं बाह्य शर्माशर्मविधायकम् । क्रियते मोहदोषेणापरथा न कदाचन ।।२२१।। मोहरूपी दोष के कारण ही संपूर्ण बाह्य पदार्थ जीव को सुख-दुःख देने में निमित्त बनते हैं अन्यथा मोहरूपी दोष न हो तो कोई भी बाह्य पदार्थ किसी भी जीव को किंचित् मात्र भी सुख-दुःख देने में निमित्त नहीं होते । इसका अर्थ मोह ही सुख-दुःखदाता है। (५८) निज शुगात्मा की उपासना ही निर्वाणसुख का उपाय - तस्मात्सेव्यः परिज्ञाय श्रद्धयात्मा मुमुक्षुभिः । लब्ध्युपाय: परोनास्ति यस्मानिर्वाणशर्मणः ।।४४।। मोक्ष की इच्छा रखनेवाले साधक को कर्ता-कर्म-करण की अभेदता के कारण निश्चित एवं शुद्ध आत्मा की ज्ञानपूर्वक श्रद्धा द्वारा निजात्मा की उपासना करना चाहिए, क्योंकि मोक्षसुख की प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय/साधन नहीं है। (५९) आसव रोकने संवर का एकमेव उपाय - नागच्छच्छक्यते कर्म रोद्धं केनापि निश्चितम् । निराकृत्य परद्रव्याण्यात्मतत्त्वरतिं विना ।।४९।। परद्रव्यों को छोड़कर अर्थात् हेय अथवा ज्ञेय मानकर निजात्मतत्त्व में लीनता किये बिना आते हुए कर्म समूह को किसी भी उपाय से रोकना सम्भव नहीं है; यह निश्चित/परमसत्य है। अज्ञानी पुण्य-पाप में भेद मानता है - सुखासुख-विधानेन विशेष: पुण्य-पापयोः । नित्य-सौख्यमपश्यद्भिर्मन्यते मुग्धबुद्धिभिः ।।१८८।। जो जीव नित्य अर्थात् शाश्वत, सच्चे निराकुल सुख से अपरिचित हैं, वे ही अज्ञानी इंद्रियजन्य सुख-निमित्तक कर्म को पुण्य और दुःखनिमित्तक कर्म को पाप, ऐसा भेद जानते/मानते हैं।
SR No.008392
Book TitleYogasara Prabhrut Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size101 KB
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