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________________ आस्रव अधिकार १०९ प्रवचनसार गाथा ६ की टीका में अमृतचन्द्राचार्य ने देवेन्द्रादि के पदप्राप्ति को वैभवक्लेश कहा है। आगे ११वीं गाथा की टीका में और स्पष्ट एवं कठोर शब्दों में कहा है “अग्नि से गरम किया हुआ घी किसी मनुष्य पर डाल दिया जावे तो वह उसकी जलन से दुखी होता है; उसीप्रकार वह स्वर्गसुख के बंध को प्राप्त होता है।" प्रवचनसार के ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन नामक प्रथम अधिकार में आचार्य अमृतचन्द्र ने आनन्द अधिकार दिया है, जिसे आचार्य जयसेन ने सुखप्रपंच अंतर अधिकार कहा है। दोनों पठनीय हैं। सांसारिक सुख को सुख माननेवाला मिथ्याचारित्री है - सांसारिकं सुखं सर्वं दुःखतो न विशिष्यते । यो नैव बुध्यते मूढः स चारित्री न भण्यते ।।१४५।। अन्वय :- सांसारिकं सर्वं सुखं दुःखतः न विशिष्यते ।(एतत् तत्त्वं) यः न एव बुध्यते सः मूढः चारित्री न भण्यते। सरलार्थ :- ‘संसार का सम्पूर्ण सुख और दुःख - इनमें कोई अंतर नहीं', जो इस तत्त्व को नहीं समझता, वह मूढ़/मिथ्यादृष्टि चारित्रवान नहीं है; ऐसा समझना चाहिए। भावार्थ :- जो सांसारिक सुख को सुख समझता है, वह मिथ्यादृष्टि है। जिसकी श्रद्धा ही खोटी है, उसे चारित्र कैसे हो सकता है? क्योंकि यथार्थ श्रद्धा ही चारित्रादि सभी धर्मों का मूल है। पुण्य-पाप में भेद माननेवाला चारित्रभ्रष्ट - यः पुण्यपापयोर्मूढोऽविशेषं नावबुध्यते । स चारित्रपरिभ्रष्टः संसार-परिवर्धकः ।।१४६।। अन्वय :- यः मूढः पुण्य-पापयो: विशेषं न अवबुध्यते; स: चारित्रभ्रष्टः; संसारपरिवर्धकः (च भवति)। सरलार्थ :- जो मूढ मिथ्यादृष्टि पुण्य-पाप में अविशेष नहीं जानता है अर्थात् भेद जानता है, वह चारित्र से भ्रष्ट और संसार को बढ़ानेवाला है। ____ भावार्थ :- प्रथमानुयोग आदि तीन अनुयोगों में पुण्य को संसार के अनुकूल संयोगों में निमित्त और पाप को प्रतिकूल संयोगों में निमित्त बताया है; परन्तु द्रव्यानुयोग अर्थात् अध्यात्म शास्त्र में पुण्य एवं पाप दोनों को कर्म बन्धन करानेवाले और संसार के कारण ही कहा है। अतः दोनों में भेद नहीं मानना चाहिए; यह विषय स्पष्ट किया है। प्रवचनसार शास्त्र की गाथा ७७ एवं इसकी टीका में इस विषय को अत्यंत स्पष्टरूप से समझाया गया है। जिज्ञासु उस प्रकरण को वहाँ से पढ़कर अपनी जिज्ञासा शांत करें। उक्त गाथा का अर्थ इसप्रकार - “इसप्रकार पुण्य और पाप में अंतर नहीं है, ऐसा जो नहीं मानता, वह मोहाच्छादित होता हुआ गर [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/109]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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