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________________ ११० योगसार-प्राभृत घोर, अपार संसार में परिभ्रमण करता है।" व्यवहार चारित्र से मुक्ति नहीं - पापारम्भं परित्यज्य शस्तं वृत्तं चरन्नपि । __ वर्तमानः कषायेन कल्मषेभ्यो न मुच्यते ।।१४७।। अन्वय :- पापारम्भं परित्यज्य शस्तं वृत्तं चरन् अपि कषायेन (सह) वर्तमानः (आत्मा) कल्मषेभ्यः न मुच्यते। सरलार्थ :- हिंसादि पाँच पाप और पापजनक आरम्भ को छोड़कर (२८ मूलगुणरूप) पुण्यमय आचरण करता हुआ भी (मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि) यदि (पुण्य-पाप को उपादेय माननेरूप) कषाय (मिथ्यात्व) के साथ वर्त रहा है तो वह मिथ्यात्वरूप पाप से नहीं छूटता। भावार्थ :- इस श्लोक में जिनेन्द्र कथित निश्चय चारित्र के बिना पुण्यमय व्यवहार चारित्र का निरर्थकपना स्पष्ट कर रहे हैं। वस्तुतः एक मिथ्यात्व ही महापाप है और सम्यक्त्व ही धर्म का मूल प्राण है । जबतक मिथ्यात्व का अभाव नहीं होता, तबतक किया गया महान पुण्यमय आचरण भी मोक्ष एवं मोक्षमार्ग के लिये किंचित् भी उपयोगी नहीं है। महान पुण्यकारक मुनिजीवन के २८ मूलगुणों का आचरण करते हुए भी उस जीव को महापाप मिथ्यात्व का आस्रव होता रहता है। अतः सबसे पहले सम्यक्त्व प्राप्त करके मिथ्यात्व का ही नाश करना चाहिए। कर्मबंध में बाह्य वस्तु अकिंचित्कर - जायन्ते मोह-लोभाद्या दोषा यद्यपि वस्तुतः। तथापि दोषतो बन्धो दुरितस्य न वस्तुतः ।।१४८।। अन्वय :- यद्यपि वस्तुत: मोह-लोभाद्या: दोषा: जायन्ते, तथापि दोषतः दुरितस्य बन्धः (जायते), न वस्तुतः। सरलार्थ :- यद्यपि वस्तु के अर्थात् बाह्य परपदार्थ के निमित्त से मोह तथा लोभादिक दोष उत्पन्न होते हैं; तथापि कर्म का बन्ध, उत्पन्न हुए दोषों के कारण होता है, न कि वस्तु के कारण अर्थात् परपदार्थ बन्ध का कारण नहीं है। भावार्थ :- यदि जीव के मोह-लोभादि परिणामों को छोड़कर अन्य निमित्तरूप परद्रव्य को कर्मबन्ध का सच्चा कारण मान लिया जाय तो फिर किसी जीव का आस्रव-बंध से छूटना नहीं बन सकता; क्योंकि जगत में निमित्तरूप परद्रव्य का कभी अभाव होगा ही नहीं। कर्मबन्ध के सम्बन्ध में समयसार गाथा २६५ में जो स्पष्ट कथन आया है; उसे देखिए - वत्थु पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होई जीवाणं। ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधोत्ति || गाथार्थ :- जीवों के जो अध्यवसान होता है, वह वस्तु को अवलम्बकर होता है, तथापि वस्तु [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/110]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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