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________________ आस्रव अधिकार १०१ अचेतन शरीर समान देखकर अन्य के आत्मारूप से मानता है। मिथ्यात्व से पुत्रादिक में आत्मीय बुद्धि - यदात्मीयमनात्मीयं विनश्वरमनश्वरम् । सुखदं दुखदं वेत्ति न चेतनमचेतनम् ।।१२८।। पुत्र-दारादिके द्रव्ये तदात्मीयत्व-शेमुषीम् । कर्मास्रवमजानानो विधत्ते मूढ़मानसः ।।१२९।। अन्वय :- यदा (अयं जीव:) आत्मीयं, अनात्मीयं, विनश्वरं, अनश्वरं, सुखदं, दुःखदं, चेतनं, अचेतनं (वा) न वेत्ति। तदा कर्म-आस्रवं अजानान: मूढमानसः पुत्र-दारादिके द्रव्ये आत्मीयत्व-शेमुषर्षी विधत्ते । सरलार्थ :- जबतक यह जीव आत्मीय-अनात्मीय, विनाशीक-अविनाशीक, सुखदायीदुःखदायी और चेतन-अचेतनको नहीं जानता है तबतक कर्मके आस्रवको न जानता हुआ यह मूढ प्राणी, पुत्र-स्त्री आदि पदार्थों में आत्मीयत्व की बुद्धि रखता है - उन्हें अपना समझता है। भावार्थ :- किसी न किसी पदार्थ में अहंबुद्धि, ममबुद्धि, कर्ताबुद्धि एवं भोक्ताबुद्धि करना/ रखना यह संसारी जीव के स्वभाव में ही गर्भित है। यदि अपना त्रिकाली निज भगवान आत्मा ही अहंबुद्धि आदि के लिए मिलता है तो वह उसी में अहंबुद्धि आदि करते हुए मोक्षमार्गी होकर मोक्ष ही प्राप्त करता है। किन्तु यदि उसे अपना निज स्वरूप श्रद्धा-ज्ञान के लिये प्राप्त नहीं होता है, तो वह जीव जो वस्तु नित्य उसके इन्द्रिय ज्ञान का ज्ञेय/विषय बनती रहती है, उसी में अहंबुद्धि आदि करता है। पत्रादि का शारीरिक रूप-रंग अपने शरीर के समान जानकर अज्ञानी का मोह और भी अधिक दृढ होता है। इसलिए जिनवाणी के आधार से अपने आत्म-स्वभाव का सम्यग्ज्ञान करना चाहिए। सब स्वतंत्र एवं स्वाधीन - कषाया नोपयोगेभ्यो नोपयोगाः कषायतः। न मूर्तामूर्तयोरस्ति संभवो हि परस्परम् ।।१३०।। अन्वय :- उपयोगेभ्यः कषायाः न (संभवाः)। कषायत: उपयोगा: न (संभवाः)। नहि मूर्त-अमूर्तयोः परस्परं (उत्पादः) संभवः अस्ति। सरलार्थ :- ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग से क्रोधादि कषाय उत्पन्न नहीं होते और कषायों से ज्ञानदर्शनरूप उपयोग उत्पन्न नहीं होते। अमूर्तिक द्रव्य से मूर्तिक द्रव्य उत्पन्न हो और मूर्तिक द्रव्य से अमूर्तिक द्रव्य उत्पन्न हो - ऐसी परस्पर उत्पत्ति संभव ही नहीं है। भावार्थ:- यह योगसार-प्राभत अध्यात्म शास्त्र है। अत: इसमें विशिष्ट प्रकार की भेदज्ञान की कला बता रहे हैं । जीव, पुद्गलादि द्रव्यों से भिन्न है, यह विषय बताना मुख्य नहीं है। यह विषय [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/101]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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