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योगसार-प्राभृत
सरलार्थ :- जबतक यह जीव परद्रव्यों से सुख-दुःख की इच्छा करता है अर्थात् परद्रव्यों से सुख-दुःख की प्राप्ति की मान्यता रखता है, तबतक आस्रव का किंचित्/अल्प भी विच्छेद अर्थात् नाश नहीं हो सकता अर्थात् आस्रव निरन्तर होता ही रहता है।
भावार्थ :- विपरीत मान्यता अर्थात् मिथ्यात्व ही अधर्म/संसार का मूल है। किसी भी पर से सुख या दुःख प्राप्ति की मान्यता तो स्पष्ट ही मिथ्यात्व है। जबतक जीव सात व्यसनों से भी अधिक हानिकारक इस मिथ्यात्वरूप पाप परिणाम को करेगा, तबतक उसे दुःखदायक कर्म का आस्रव होता ही रहेगा, यह प्राकृतिक नियम है।
आस्रव का विच्छेद नहीं होता इसका अर्थ यह है कि वह निरन्तर मोह-राग-द्वेषमय परिणाम करता रहता है, जिससे उसे प्रति समय वचनातीत अनन्त दुःख होता है। स्थूल बुद्धिवालों को अर्थात् जिन्हें सर्वज्ञ भगवान के वचनों पर विश्वास नहीं है, उन्हें मात्र बाह्य प्रतिकूलता में ही दुःख लगता है, जो सर्वथा असत्य है। मिथ्यात्व से देह संबंधी विपरीतता -
अचेतनत्वमज्ञात्वा स्वदेह-परदेहयोः।
स्वकीय-परकीयात्मबुद्धितस्तत्र वर्तते ।।१२७।। अन्वय :- (मिथ्यादृष्टिः) स्वदेह-परदेहयोः अचेतनत्वं अज्ञात्वा तत्र स्वकीय-परकीय आत्मबुद्धितः वर्तते।
सरलार्थ :- अज्ञानी/मिथ्यादृष्टि जीव स्वदेह और परदेह के अचेतनपने को न जानकर स्वदेह में आत्मबुद्धि से और परदेह में परकीय आत्मबुद्धि से प्रवृत्त होता है अर्थात् अपने शरीर को अपना आत्मा और पर के शरीर को पर का आत्मा समझकर व्यवहार करता है।
भावार्थ :- स्थूल शरीर को औदारिक शरीर कहते हैं। यह मनुष्य और तिर्यंचों को होता है। औदारिक शरीर आहारवर्गणाओं से बनता है। आहारवर्गणा पदगलमय है। पदगलद्रव्य अचेतनरूप है। जो जैसा है, उसे वैसा ही जानना चाहिए । मूढ़ जीव शरीर के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता। जीवादि सात तत्त्वों में शरीर अजीव तत्त्व है। जो किसी एक तत्त्व को अन्यथा जानता है, वह अन्य सर्व तत्त्वों को भी नियम से अन्यथा ही जानता है; ऐसा समझना चाहिए।
समाधिशतक श्लोक १० में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने भी इसी अर्थ को निम्न शब्दों में स्पष्ट किया है :
स्वदेहसदृशं दृष्ट्वा परदेहमचेतनम्।
परात्माधिष्ठितं मूढः परत्वेनाध्यवस्यति ।। अर्थ :- अज्ञानी बहिरात्मा, अन्य आत्मा के साथ रहनेवाले, दूसरे के अचेतन शरीर को, अपने
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