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अजीव अधिकार
न निर्वृतिं गतस्यास्ति तद्रूपं किंचिदात्मनः।
अचेतनमिदं प्रोक्तं सर्वं पौद्गलिकं जिनैः ।।१०४।। अन्वय :- (अक्षैः यत् दृश्यते ज्ञायते अनुभूयते) तत् किंचित् (अपि) रूपं निर्वृतिं गतस्य आत्मनः न अस्ति । जिनैः इदं सर्वं (रूपं) अचेतनं पौद्गलिकं प्रोक्तं ।
सरलार्थ :- जो इंद्रियों से देखा जाता है, जाना जाता है, और अनुभव में लिया जाता है वह सभी रूप अर्थात् मूर्तिकपना मोक्ष-प्राप्त आत्मा में नहीं है; क्योंकि रूप को जिनेन्द्रदेव ने पुद्गलात्मक एवं अचेतन कहा है। ____ भावार्थ :- पुद्गल परमाणु अथवा स्कन्ध में स्पर्शादि गुण होने से पुद्गल को रूपी अर्थात् मूर्तिक कहते हैं। संसारी जीव शरीर सहित हैं, अतः उसे भी व्यवहार से रूपी अर्थात् मूर्तिक कहने का व्यवहार रूढ़ है। यहाँ मोक्ष प्राप्त जीव को मूर्त अथवा रूपी कहने का व्यवहार नहीं बन सकता; क्योंकि मुक्त जीव शरीर रहित है। रागादि भाव कर्मजनित हैं -
विकाराः सन्ति ये केचिद्राग-द्वेष-मदादयः।
कर्मजास्तेऽखिला ज्ञेयास्तिग्मांशोरिव मेघजाः ।।१०५।। अन्वय :- मेघजा: तिग्म-अंशोः इव (जीवस्य) केचित् राग-द्वेष-मोहादयः विकाराः सन्ति; ते अखिला: कर्मजा: ज्ञेयाः। ___ सरलार्थ :- मेघ के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले सूर्य के विकार के समान जीव के राग, द्वेष, मद आदि जो कुछ भी विकार अर्थात् विभाव भाव हैं, वे सब कर्मजनित हैं; ऐसा जानना चाहिए।
भावार्थ :- जिसप्रकार मेघों के उदयादि का निमित्त पाकर सूर्य में विकार उत्पन्न होता है, उसीप्रकार कर्मों के उदय का निमित्त पाकर जीव में राग-द्वेषादि विकार होते हैं, अतः उन्हें कर्मज कहा है।
इस अजीवाधिकार के ही ३५वें श्लोक में देहादि विकारों की बात कही है, वे सब भाव नामकर्मोदयजन्य हैं और इस श्लोक में जिन परिणामों/भावों की चर्चा है, वे सब मोहनीयकर्म के निमित्त से उत्पन्न विभाव भाव हैं। इन दोनों को कर्मज भाव ही कहा है।
प्रश्न :- गोम्मटसार, धवलादि आगम ग्रन्थों में मोह-राग-द्वेषादि भावों को जीव का कहा और यहाँ इस अध्यात्मशास्त्र में उन्हें ही कर्मज अर्थात् पौद्गलिक कहा, इन विभिन्न कथनों का क्या अभिप्राय है?
उत्तर :- आपको प्रश्न उपस्थित होना स्वाभाविक है। आगम ग्रंथों में मोह-राग-द्वेषादि भावों को जीव का बताकर जीव को अपने अपराध का बोध कराया है। मोहादि भाव का कर्ता अशुद्ध निश्चयनय से जीव ही है, यह समझाया है। अपराध का बोध कराना, यह प्राथमिक कार्य आगम का
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