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अन्य क्षेत्र में भिन्न-भिन्न होते हैं। हमारी विवक्षा मात्र जैन अध्यात्म साहित्य की है। इस अपेक्षा से योग शब्द का अर्थ ध्यान होता है। तत्त्वार्थवार्तिक/राजवार्तिक शास्त्र के छठवें अध्याय के प्रथम सूत्र के बारहवें वार्तिक में स्पष्ट शब्दों में भट्टारकलंकदेव ने कहा है - योगः समाधिः ध्यानमित्यनर्थान्तरम् । अर्थात् योग, समाधि और ध्यान ये तीनों शब्द एक अर्थ के वाचक हैं।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रणेता सर्वमान्य आचार्य कुंदकुंद ने नियमसार शास्त्र के तीन गाथाओं में योग शब्द का अर्थ निम्नानसार अत्यन्त विशद रीति से किया है -
रायादीपरिहारे अप्पाणं जो द जंजदे साह । सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो ।।१३७ ।। सव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू । सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो ।।१३८ ।। विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु।
जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो ।।१३९ ।। अर्थ :- जो साधु रागादिके परिहार में आत्मा को लगाता है (अर्थात् आत्मा में आत्मा को लगाकर रागादिका त्याग करता है), वह योगभक्तियुक्त है; दूसरे को योग किसप्रकार हो सकता है?
जो साधु सर्व विकल्पों के अभाव में आत्मा को लगाता है (अर्थात् आत्मा में आत्मा को जोड़कर सर्व विकल्पों का अभाव करता है), वह योगभक्तिवाला है; दूसरे को योग किसप्रकार हो सकता है? ____ विपरीत अभिनिवेश का परित्याग करके जो जैनकथित तत्त्वों में आत्मा को लगाता है, उसका निज भाव वह योग है।
उक्त तीन गाथाओं में आचार्य कुंदकुंद तीन कार्य करते हुए आत्मा को तत्त्व में जोड़ने के लिए प्रेरणा देते हैं। पहला कार्य - राग-द्वेष के परिहारपूर्वक, दूसरा - संपूर्ण संकल्प-विकल्प के अभाव के साथ और तीसरा कार्य - विपरीत अभिनिवेश से रहित होकर । तीसरी गाथा में जोण्हकहियतच्चेसु यह शब्द विशेष महत्त्वपूर्ण है। आत्मा को अर्थात् अपनी व्यक्त ज्ञानपर्याय को जिनेन्द्र कथित तत्त्वों में जोड़ना ही योग अर्थात् ध्यान है। शरीर की श्वास रोकनेरूप क्रिया अथवा अन्य जड़ क्रिया को ध्यान कहनेवालों को आचार्य कुंदकुंद के इस अभिप्राय/कथन को समझकर अपनी धारणा को यथार्थ बनाना आवश्यक है। ___आचार्य अमितगति ने प्रस्तुत ग्रंथ के नौवें अधिकार के दसवें श्लोक में योग की परिभाषा निम्नानुसार दी है, उसे भी हमें सूक्ष्मता से समझना लाभदायक रहेगा। आचार्यों का श्लोक :
विविक्तात्म-परिज्ञानं योगात्संजायते यतः।
स योगो योगिभिर्गीतो योगनिर्धूत-पातकैः ।।९/१०।। अर्थ :- जिन योगियों ने योग के बल से पातकों का अर्थात् घातिया कर्मों का नाश किया है;
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/329]