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अजीव अधिकार
भावार्थ :- इस श्लोक में द्रव्य का लक्षण व्याकरण सम्मत व्युत्पत्ति द्वारा स्पष्ट किया है। इसीप्रकार का अर्थ पंचास्तिकाय संग्रह गाथा ९में भी है - "उन-उन सद्भाव पर्यायों को जो द्रवित होता है, प्राप्त होता है, उसे (सर्वज्ञ) द्रव्य कहते हैं, जो कि सत्ता से अनन्यभूत है।" सर्व पदार्थगत सत्ता का स्वरूप -
ध्रौव्योत्पादलयालीढा सत्ता सर्वपदार्थगा।
एकशोऽनन्तपर्याया प्रतिपक्षसमन्विता ।।५।। अन्वय :- सत्ता ध्रौव्य-उत्पाद-लय-आलीढ़ा, एकशः सर्वपदार्थगा, अनन्तपर्याया, प्रतिपक्षसमन्विता (भवति)।
सरलार्थ :- सत्ता अर्थात् अस्तित्व ध्रौव्योत्पादव्ययात्मिका, एक से लेकर सब पदार्थों में व्यापनेवाली, अनन्त पर्यायों को धारण करनेवाली और विरुद्ध पक्ष सहित अर्थात् असत्ता आदि के साथ विरोध न रखनेवाली होती है।
भावार्थ :- द्रव्य के सत्तारूप/अस्तित्वमय स्वभाव में उत्पाद और ध्रौव्य तो सत्स्वरूप हैं ही; लेकिन लय अर्थात् द्रव्य का व्ययरूप अंश भी सत्स्वरूप ही है। जिनेन्द्र प्रणीत वस्तु-व्यवस्था में अभाव भी सर्वथा अभावरूप अर्थात् तुच्छाभावरूप न होकर कथंचित् अभावरूप अथवा भावान्तर अभावरूप होता है।
आचार्य कुंदकुंद और अमृतचंद्र ने पंचास्तिकाय गाथा ८ एवं उसकी टीका में और प्रवचनसार गाथा ९६, ९७ तथा इनकी टीका में स्वरूप अस्तित्व (अवान्तर सत्ता)/सादृश्य अस्तित्व (महासत्ता) को विस्तार से समझाया है। उक्त विषय को ही आचार्य अमितगति मात्र एक ही श्लोक में बताने का प्रयास कर रहे हैं। अतः पाठकों से निवेदन है कि वे पंचास्तिकाय संग्रह और प्रवचनसार के उल्लेखित अंश को अवश्य पढ़ें। विस्तार भय से यहाँ नहीं दिया है।
द्रव्य के सप्रतिपक्षपने को पंचाध्यायी ग्रंथ में भी श्लोक नं. २०, २१, २२ में स्पष्ट किया है। द्रव्य का उत्पाद-व्यय, पर्याय अपेक्षा से -
नश्यत्युत्पद्यते भाव: पर्यायापेक्षयाखिलः।
नश्यत्युत्पद्यते कश्चिन्न द्रव्यापेक्षया पुनः ।।६६।। अन्वय :- अखिलः भाव: पर्याय-अपेक्षया नश्यति उत्पद्यते । पुनः द्रव्य-अपेक्षया न कश्चित् नश्यति (न) उत्पद्यते ।
सरलार्थ :- द्रव्य समूह को पर्याय की अपेक्षा से देखा जाय तो द्रव्य नष्ट होता है और द्रव्य ही उत्पन्न भी होता है; परन्तु अनादि-अनंत अर्थात् अविनाशी द्रव्य की अपेक्षा से देखा जाय तो कोई भी द्रव्य न नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है।
भावार्थ :- आचार्य कुंदकुंद भी पंचास्तिकाय संग्रह की ११वीं गाथा में इसी भाव को स्पष्ट
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