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योगसार-प्राभृत
छहों की द्रव्यसंज्ञा -
जीवेन सह पञ्चापि द्रव्याण्येते निवेदिताः।
गुण-पर्ययवद्र्व्यमिति लक्षण-योगतः ।।६३।। अन्वय :- गुणपर्ययवद् द्रव्यम् इति लक्षणयोगत: जीवेन सह निवेदिताः एते पञ्च अपि (अजीवा:) द्रव्याणि (सन्ति)।
सरलार्थ :- जीव सहित ये पाँचों भी (अजीव द्रव्य) द्रव्य कहे गये हैं; क्योंकि ये सभी गुणपर्ययवद्रव्यं इस द्रव्य के लक्षण से सहित हैं।
भावार्थ :- गुणपर्यायवान को द्रव्य कहते हैं, यह लक्षण जीवादि छहों द्रव्यों में बराबर घटित होता है। यही तत्त्वार्थसूत्र के ५वें अध्याय के ३८वें सूत्र में भी इन्हीं शब्दों में कहा है। ___आचार्य कुंदकुंद ने पंचास्तिकाय संग्रह की गाथा १० में भी द्रव्य का लक्षण निम्नानुसार दिया है -
दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं ।
गुणपज्जयासयं वा जंतं भण्णंति सव्वण्हू|| गाथार्थ - जो सत् लक्षणवाला है, जो उत्पादव्ययध्रौव्य संयुक्त है अथवा जो गुणपर्यायों का आश्रय है, उसे सर्वज्ञदेव द्रव्य कहते हैं।
प्रश्न - ‘गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं यह जैन सिद्धान्त प्रवेशिका में समागत लक्षण ठीक नहीं लगता है?
उत्तर - नहीं, यह लक्षण भी आगम व युक्ति सम्मत ही है। पंचाध्यायी के प्रथम अध्याय के ७३वें श्लोक में गुणसमुदायो द्रव्यं ऐसा कहा है।
युक्ति से भी यह लक्षण सही सिद्ध होता है; क्योंकि पर्यायें गुणों की ही तो होती हैं। गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं, ऐसा कहो अथवा गुणपर्यायों के समूह को द्रव्य कहते हैं, ऐसा कहो - दोनों का अर्थ/अभिप्राय एक ही है। द्रव्य का व्युत्पत्तिपरक लक्षण और सत्तामय स्वरूप -
द्रूयते गुणपर्यायैर्यद्यद् द्रवति तानथ।
तद् द्रव्यं भण्यते षोढा सत्तामयमनश्वरम् ।।६४।। अन्वय :- अथ गुणपर्यायैः यत् द्रूयते (यत्) तान् द्रवति तत् द्रव्यं भण्यते । (तत्) षोढ़ा, सत्तामयम्, अनश्वरम्।
सरलार्थ :- जो गुण-पर्यायों के द्वारा द्रवित होता है अथवा जो उन गुण-पर्यायों को द्रवित/ प्रवाहित करता है, वह द्रव्य कहा जाता है। उक्त द्रव्य जीवादि छह भेदरूप हैं, सत्तासहित हैं और अविनश्वर अर्थात् कभी नष्ट न होनेवाले हैं।
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