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योगसार-प्राभृत
भावार्थ :- यह ग्रन्थ का अन्तिम उपसंहार श्लोक है, जिसमें ग्रन्थ के नाम का उल्लेख करते हुए उसके एकाग्र चित्त से पठन/अध्ययन के फल को दरशाया है और वह फल है अपने आत्मस्वभाव की उपलब्धि, ज्ञप्ति और सम्प्राप्ति, जो कि सारे संसार के दोषों से/विकारों से रहित है और जिसे प्राप्त करके यह जीव इतना ऊँचा उठ जाता है कि लोक के अग्रभाग में जाकर विराजमान हो जाता है, जो कि संसार के सारे विकारों से रहित; सारी झंझटों तथा आकुलताओं से मुक्त, एक पूजनीय स्थान है।
आत्मा के इस पूर्ण-विकास एवं जीवन के चरम लक्ष्य को लेकर ही यह ग्रन्थ रचा गया है, जिसका ग्रन्थ के प्रथम मंगल पद्य में स्वस्वभावोपलब्धये पद के द्वारा और पिछले पद्य में ब्रह्मप्राप्त्यै पद के द्वारा उल्लेख किया गया है और इसलिए वही उद्दिष्ट एवं लक्ष्यभूत फल इस ग्रन्थ के पूर्णतः एकाग्रता के साथ अध्ययन का होना स्वाभाविक है। अतः अपना हित चाहनेवाले पाठकों को इस मंगलमय योगसार-प्राभृत का एकाग्रचित्त से अध्ययन कर उस फल को प्राप्त करने के लिये अविलम्ब अग्रसर हो जाना चाहिये।
इसप्रकार श्लोक क्रमांक ४५७ से ५४० पर्यन्त ८४ श्लोकों में यह अन्तिम नौवाँ 'चूलिकाअधिकार' पूर्ण हुआ।
।।इति श्रीमद्-अमितगति-आचार्यविरचित योगसार-प्राभृत' समाप्त ।।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/324]