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________________ चूलिका अधिकार ३२३ भावार्थ :- यहाँ ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के कर्तृत्वादि की सूचना करते हुए ग्रन्थ का नाम 'योगसार प्राभृत', अपना नाम अमितगति' और ग्रन्थ के रचने का उद्देश्य 'ब्रह्मप्राप्ति' बतलाया है। ब्रह्मप्राप्ति का आशय स्वात्मोपलब्धि है, जिसे 'सिद्धि' तथा 'मुक्ति' भी कहते हैं और जो वस्तुतः सारे विभाव-परिणमन को हटाकर स्वात्मा को अपने स्वभाव में स्थित करने के रूप में है, किसी परपदार्थ या व्यक्ति-विशेष की प्राप्ति या उसमें लीनता के रूप में नहीं। इसी उद्देश्य को ग्रन्थ के प्रारम्भिक मंगल-पद्य में 'स्वस्वभावोपलब्धये' पद्य के द्वारा व्यक्त किया गया है। इसका मुख्य विशेषण भी ‘स्वस्वभावमय' दिया है। इससे स्वभाव की उपलब्धि रूप ही सिद्धि है, जिसे प्राप्त करनेवाले ही 'सिद्ध' कहे जाते हैं। यहाँ ब्रह्मप्राप्ति ही एक मात्र लक्ष्य है, यह असन्दिग्धरूप से समझ लेना चाहिए। ग्रन्थकार ने अपना विशेषण निःसंगात्मा' दिया है जो बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है और इस बात को सूचित करता है कि ग्रन्थकार महोदय केवल कथन करनेवाले नहीं थे, किन्तु ग्रन्थ के प्रतिपाद्य एवं लक्ष्य में उन्होंने स्वयं को रंग लिया था, परपदार्थों से अपना ममत्व हटा लिया था। उन्हें अपने संघ का, गुरु-परम्परा का तथा शिष्य-समुदाय का भी कोई मोह नहीं रहा था, इसी से शायद उन्होंने इस अवसर पर उनका कोई उल्लेख नहीं किया। उनका आत्मा निःसंग था, पर के सम्पर्क से अपने को अलग रखनेवाला था और इसलिए उन्हें सच्चे अर्थ में योगिराज' समझना चाहिए। जो सत्कार्यों का उपदेश दूसरों को देते हैं और उन पर स्वयं भी चलते हैं/पालन अमल करते हैं वे ही 'सत्पुरुष' होते हैं। उन्हीं के कथन का प्रभाव भी पड़ता है। इस पद्य में ‘परमब्रह्म' के जो विशेषण दिये गये हैं वे ही प्रकारान्तर से ग्रन्थ पर भी लागू होते हैं और इससे ऐसा जान पड़ता है कि यह ग्रन्थ अपने लक्ष्य के बिल्कुल अनुरूप बना है। उदाहरण के लिए 'नित्यानन्द' विशेषण को लीजिए - इस ग्रन्थ को जब भी जिधर से भी पढ़ते-अनुभव करते हैं उसी समय उधर से नया रस तथा आनन्द आने लगता है। और इसीलिए इस ग्रन्थ को रमणीय' कहना बहुत ही युक्ति-युक्त है । रमणीय का स्वरूप भी यही है - पदे-पदे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः - पद-पदपर जो नवीन जान पड़े, वही रमणीयता का स्वरूप है। इस ग्रन्थ के अध्ययन का फल - (रथोद्धता) योगसारमिदमेकमानसः प्राभृतं पठति योऽभिमानसः। स्वस्वरूपमुपलभ्य सोऽश्चितं सद्म याति भवदोषवञ्चितम् ।।५४०।। अन्वय: - इदं योगसारं प्राभतं यः एकमानसः अभिमानसः पठति सः स्व-स्वरूपं उपलभ्य अश्चितं सद्म याति (यत्) भव-दोष-वञ्चितं (अस्तिं)। सरलार्थ :- इस योगसार प्राभृत को जो एकचित्त होकर एकाग्रता से पढ़ता है, वह अपने स्वरूप को जानकर तथा सम्प्राप्त कर उस पूजित सदन को/लोकाग्र के निवासरूप पूज्य मुक्ति महल को प्राप्त होता है, जो संसार के दोषों से रहित है/संसार का कोई भी विकार जिसके पास नहीं आता। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/323]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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