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चूलिका अधिकार
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होने पर भी उन्हें अबुद्धिपूर्वक राग-द्वेष होते रहते हैं। ये मुनिराज राग-द्वेष के कारण कथंचित् दुःखी भी हैं। क्षीणमोही गुणस्थानवर्ती मुनिराज ही राग-द्वेष से रहित होने से पूर्ण वीतरागी हैं। अतः उन्हें प्रत्याख्यान कर्म की आवश्यकता नहीं रहती। उपशांतमोही मुनिराज भी एक अंतर्मुहूर्त कालपर्यंत प्रत्याख्यानकर्म से मुक्त रहते हैं; क्योंकि वे भी उतने काल के लिये पूर्ण वीतरागी हो गये हैं। रागी सर्वदा दोषी
रागिणः सर्वदा दोषाः सन्ति संसारहेतवः ।
ज्ञानिनो वीतरागस्य न कदाचन ते पुनः ।।५२९।। अन्वय : - रागिणः संसारहेतवः दोषाः सर्वदा सन्ति, पुनः ज्ञानिन: वीतरागस्य ते (दोषाः) कदाचन न (सन्ति)।
सरलार्थ :- रागी अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव के संसार के कारणभूत सर्व दोष सदाकाल होते हैं; परन्तु ज्ञानी वीतरागी जीव के संसार के कारणभूत सर्व दोष कदाचित् भी नहीं होते।
भावार्थ :- मिथ्यादृष्टि जीव धर्म करने की भावना से भले अणुव्रत-महाव्रत का पालन करे, अनेक प्रकार का कठिन तपश्चरण करे, मंदकषाय के कारण नौ ग्रैवेयक पर्यंत स्वर्ग को भी प्राप्त करे, ग्यारह अंग और नौ पूर्व का ज्ञान भी करे; तथापि मिथ्यात्व परिणाम के कारण उसे संसार के कारणभूत सर्वदोष सदाकाल होते ही रहते हैं। जबतक मिथ्यात्व रहेगा, तबतक संसार बढ़ने का कार्य चलता ही रहेगा।
ज्ञानी वीतरागी जीव का अर्थ यहाँ उपशांतमोही और क्षीणमोही जीव को लेने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें संसार के कारणभूत सर्वदोष नहीं होते; क्योंकि क्षीणमोही तो अगले अंतर्मुहूर्त में अरहंत होनेवाले हैं। यहाँ तो अव्रती श्रावक, व्रती श्रावक अथवा हमेशा छठे-सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले साधक जीवों को भी साधना काल में संसार के कारणभूत सर्वदोष कदाचित् भी नहीं होते । ये दोष मात्र मिथ्यादृष्टि जीवों को ही सदाकाल होते हैं। मिथ्यात्व ही संसार है और उस मिथ्यात्व से ही सर्वदोष होते हैं, अन्यथा नहीं। कर्मबंध एवं मुक्ति का कारणरूप भाव -
जीवस्यौदयिको भावः समस्तो बन्धकारणम् ।
विमुक्तिकारणं भावो जायते पारिणामिकः ।।५३०।। अन्वय : - जीवस्य औदयिकः भावः समस्त: बन्धकारणं (भवति, जीवस्य च) पारिणामिक: भावः विमुक्तिकारणं जायते ।
सरलार्थ:- मोहनीय कर्मों के उदय के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले जीव के जो औदयिक भाव हैं वे सब नवीन कर्मबंध के कारण होते हैं और जीव का जो पारिणामिक भाव है, वह मुक्ति का कारण होता है।
भावार्थ :- औदयिकभाव कर्मबंध का कारण है; यह सामान्य कथन है। औदयिक भाव के
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