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योगसार-प्राभृत
अतः त्रिकाली भगवान आत्मा का आश्रय करके मिथ्यात्वादि के नाशपूर्वक सम्यग्दृष्टि होना ही एकमात्र कर्मबंध टालने का उपाय है। वीतरागभाव ही धर्म है -
राग-द्वेष-निवृत्तस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा।
राग-द्वेष-प्रवृत्तस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा ।।५२७।। अन्वय : - राग-द्वेष-निवृत्तस्य (साधकस्य) प्रत्याख्यानादिकं वृथा (भवति)। च रागद्वेष-प्रवृत्तस्य (असाधकस्य) प्रत्याख्यानादिकं वृथा (भवति)।
सरलार्थ :- जो साधक मुनिराज राग-द्वेष से रहित हैं, उनके प्रत्याख्यानादिक षट्कर्म व्यर्थ अर्थात् कुछ काम के नहीं हैं और जो मुनिराज राग-द्वेषादि विभाव भावों में प्रवृत्त हैं, उनके भी प्रत्याख्यानादिक षट्कर्म व्यर्थ अर्थात् कुछ काम के नहीं है।
भावार्थ :- यहाँ राग-द्वेष से रहित मुनिराज को क्षीणमोही गुणस्थानवर्ती जानना और जो राग-द्वेष में प्रवृत्त हैं उनको मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनिराज समझना चाहिए। जिनधर्म में वीतराग भाव धर्म है और रागभाव अधर्म है। जो कुछ व्रतादि अथवा प्रत्याख्यानादिक बाह्य क्रियाएँ बताई जाती हैं वे सर्व मात्र वीतरागभाव की उत्पत्ति, वृद्धि अथवा पूर्णता के लिये होती हैं। यदि वीतरागता प्रगट हो चुकी हो तो फिर प्रत्याख्यानादि किसलिये करें? उनका प्रयोजन ही नहीं रहा। ___ यदि नामधारी साधक राग-द्वेष में प्रवृत्त ही हो रहा हो, तो प्रत्याख्यानादि षक्रिया का मूल प्रयोजन सफल न होने से वे व्यर्थ ही हैं। अतः वीतरागभाव के लिये प्रयास करना ही साधक का कर्तव्य है। प्रत्याख्यानादि से रहित मनिराज का स्वरूप -
सर्वत्र यः सदोदास्ते न च द्वेष्टि न रज्यते ।
प्रत्याख्यानादतिक्रान्तः स दोषाणामशेषतः ।।५२८।। अन्वय : - यः (योगी कुत्रापि) न रज्यते न च द्वेष्टि सर्वत्र सदा उदास्ते, सः (योगी) दोषाणां अशेषतः प्रत्याख्यानात् अतिक्रान्तः (अस्ति)।
सरलार्थ :- जो योगी किसी भी वस्तु में राग नहीं करते, द्वेष भी नहीं करते और सर्वत्र उदासीनभाव से रहते हैं; वे मुनिराज दोषों के प्रत्याख्यान के कारण कर्म से पूर्णतः मुक्त हैं।
भावार्थ :- यहाँ इस श्लोक में शुद्धोपयोगी क्षीणमोही मुनिराज का कथन किया है।
प्रश्न :- आप क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती मुनिराज का कथन क्यों समझते हो? अप्रमत्त विरत सप्तम गुणस्थान से लेकर क्षीणमोही पर्यंत सर्व मुनिराजों का कथन है, ऐसा समझने में क्या आपत्ति है?
उत्तर :- अप्रमत्तविरत से लेकर सूक्ष्मसांपराय नामक दसवें गुणस्थान पर्यंत मुनिराज राग-द्वेष से रहित नहीं हो सकते; क्योंकि इन चारों गुणस्थानों में यथायोग्य मोह का उदय होने से वे शुद्धोपयोगी
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