________________
३१०
योगसार-प्राभृत
समझाया है। अज्ञानी जीव अनादि से मात्र अशुभ भाव में रस लेता है । कदाचित् कभी शुभभाव में धर्म मानकर जीवन पुण्यमय बनाते हुए स्वर्गादि शुभ गति को भी प्राप्त करता है।
शुद्धभाव/वीतरागता ही मोक्षमार्ग है/धर्म है - ऐसा उपदेश संसार में कहीं-कहीं अति दुर्लभता से मिलता है । वास्तविक उपदेश को ग्रहण कर जो जीवन में शुद्धभाव व्यक्त करता है, वह सम्यग्दृष्टि/ ज्ञानी होता है। तदनंतर त्रिकाली शुद्ध निज भगवान आत्मा के ध्यान से अर्थात् शुद्धोपयोग से अपने शुद्धभाव में वृद्धि करता है। इसी समय जीवन में अणुव्रत, महाव्रतरूप शुभभाव भी यथार्थ हो जाते हैं, इसी अवस्था को श्रावक, मुनि कहा जाता है। महाव्रती मुनिराज उग्र पुरुषार्थपूर्वक शुद्धभाव से अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में आरोहण करते हुए पूर्ण वीतरागता प्रगट करके सकल परमात्मा बनते हैं। तदनंतर आयुकर्म के अनुसार सकल परमात्मा का जीवन पूर्ण कर निकल परमात्मरूप सिद्धदशा सहित लोक के अग्रभाग में विराजमान होते हैं; यही मुक्ति अर्थात् मोक्ष है। उत्कृष्ट योगी का स्वरूप -
विनिवृत्यार्थतश्चित्तं विधायात्मनि निश्चलम् ।
न किञ्चिच्चिन्तयेद्योगी निरस्ताखिलकल्मषः ।।५२०।। अन्वय : - निरस्ताखिलकल्मष: योगी चित्तं अर्थतः विनिवृत्य आत्मनि निश्चलं विधाय न किञ्चित् चिन्तयेत्।
सरलार्थ :- जिस योगी ने मिथ्यात्व, क्रोधादि कषायरूप कल्मष का पूर्ण नाश किया है, वह चित्त को सब ज्ञेयरूप पदार्थों से हटाकर मात्र निज भगवान आत्मा में निश्चल/स्थिर करता है, आत्मा को छोड़कर किसी का किंचित भी चिंतन/ध्यान नहीं करता। - (वही उत्कृष्ट योगी है।)
भावार्थ :- इस श्लोक में क्षीणमोह मुनिराज का स्वरूप बताया है; क्योंकि इस बारहवें गुणस्थान में मिथ्यात्व, कषाय, नोकषायरूप कल्मष का संपूर्ण अभाव रहता है और ये सर्वोत्तमयोगी एक अंतर्मुहुर्त के बाद ही केवलज्ञानी होनेवाले हैं। अतः ये योगीराज निज भगवान आत्मा को छोड़कर अन्य किसी का भी ध्यान नहीं करते । अब अन्य किसी भी ज्ञेय पदार्थों का उन्हें आकर्षण ही नहीं रहा, वे परमात्मा होने की पूर्व भूमिका में प्रविष्ट हो चुके हैं। इंद्रिय-विषयासक्त जीव क
स्वार्थ-व्यावर्तिताक्षोऽपि विषयेषु दृढ-स्मृतिः।
सदास्ति दुःस्थितो दीनो लोक-द्वय-विलोपकः ।।५२१।। अन्वय : - (यः) स्वार्थ-व्यावर्तिताक्षः अपि विषयेषु दृढ-स्मृतिः (सः) सदा दुःस्थितः, दीन: (च) लोक-द्वय-विलोपकः अस्ति।
सरलार्थ :- जो जीव अपने स्पर्शनेंद्रियादि को उनके स्पर्शादि विषयों से (क्षेत्र की अपेक्षा से) अलग रखता है अर्थात् प्रत्यक्ष में इंद्रियों से विषयों को भोगता नहीं है; तथापि इंद्रियों के विषयों का
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/310]