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चूलिका अधिकार
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भावार्थ :- पिछले श्लोक में ज्ञानी के निरासंग/अनासक्त/निर्मम भाव को बताया है। इस श्लोक में उस ही निरासंग का स्वरूप ग्रंथकार ने कहा है । इस श्लोकगत अनासक्त भाव को समयसार कलश १३५ में विरागता शब्द से स्पष्ट किया है। उस कलश का अर्थ निम्नप्रकार है - “क्योंकि यह ज्ञानी पुरुष विषय सेवन करता हुआ भी ज्ञानवैभव और विरागता के बल से विषयसेवन के निजफल को (रंजित परिणामों को) नहीं भोगता-प्राप्त नहीं होता; इसलिए यह पुरुष सेवक होने पर भी असेवक है (अर्थात् विषय का सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता)। जीव के भाव एवं उनका कार्य -
भावः शुभोऽशुभः शुद्धोधा जीवस्य जायते ।
यतः पुण्यस्य पापस्य निर्वृतेरस्ति कारणम् ।।५१८।। अन्वय : - जीवस्य भावः त्रेधा जायते शुभः अशुभ: शुद्धः (च इति) । यतः (शुभभाव:) पुण्यस्य (अशुभभाव:) पापस्य (शुद्धभाव: च) निर्वृते: कारणं अस्ति।
सरलार्थ :- अनेक जीवों की अपेक्षा से जीव के भाव तीन प्रकार के होते हैं - एक शुभ, दूसरा अशुभ और तीसरा शुद्ध । इनमें से शुभभाव पुण्य का कारण है, अशुभभाव पाप का और शुद्धभाव निर्वृति अर्थात् मोक्ष का कारण है।
भावार्थ :- शुभ एवं अशुभ भावों का होना कुछ अभूतपूर्व कार्य नहीं है। अनादिकाल से भव्य तथा अभव्य जीवों को शुभाशुभभाव सहज ही चले आ रहे हैं। शुभभावों से पुण्यकर्म का बंध और अशुभभावों से पापकर्म का बंध भी संसारस्थ सर्व जीवों को हो ही रहा है क्योंकि वे उनसे श्रुतपरिचित एवं अनुभूत हैं । इसकारण शुभाशुभ परिणाम करने के लिए देशना की क्या आवश्यकता है?
अब रही बात शुद्धभाव की। शुद्धभाव नियम से भव्य जीवों को ही होता है - अभव्यों को नहीं। भव्य जीवों में भी सबको नहीं, जो भव्य होने पर भी पर्यायगत पात्रता की अपेक्षा से जो दूरानदूर भव्य अर्थात् अभव्यसम भव्य हैं, उन्हें भी कभी शुद्धभाव नहीं होता। जिन जीवों को शुद्ध भाव हो सकता है, उन्हें ही शुद्धभाव करने का उपदेश ज्ञानी जीव देते हैं; क्योंकि शुद्धभाव ही निर्वृत्ति अर्थात् मोक्ष का कारण है। मोक्ष के उपाय का उपदेश -
___ ततः शुभाशुभौ हित्वा शुद्धं भावमधिष्ठितः ।
निर्वृतो जायते योगी कर्मागमनिवर्तकः ।।५१९।। अन्वय : - ततः कर्मागमनिवर्तकः योगी शुभाशुभौ (भावौ) हित्वा शुद्धं भावं अधिष्ठितः निर्वृत: जायते।
सरलार्थ :- इस कारण जो योगी कर्मों के आस्रव का निरोधक है, वह शुभ-अशुभ भावों को छोड़कर शुद्धभाव/वीतराग भाव में अधिष्ठित अर्थात् विराजमान होता हुआ मुक्ति को प्राप्त होता है।
भावार्थ :- इस श्लोक में मुक्ति की प्राप्ति का वास्तविक उपाय एक शुद्ध भाव ही है, यह
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