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योगसार प्राभृत
सरलार्थ :- मैं कर्ता हूँ, मुक्ति प्राप्त करना मेरा कर्त्तव्य है, निर्वाणरूप कार्य के लिये ज्ञान करण है और ज्ञान का फल सुख है - इत्यादि में से एक भी विकल्प उस कल्पनातीत/अलौकिक मुमुक्षु में नहीं होता है ।
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भावार्थ: :- इस श्लोक में मुमुक्षु की निर्विकल्पता का स्वरूप बताया है। मुक्ति के साधक मुमुक्षु में कर्ता, कार्य, कारण और फल का भी कोई विकल्प नहीं रहता है। इनमें से एक भी विकल्प रहे तो मुक्ति की साधना नहीं बनती है, अतः मुमुक्षु इन सब विकल्पों से निर्विकल्प ही रहता है। आत्मा जड़ कर्मों से सदा भिन्न
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आत्म-व्यवस्थिता यान्ति नात्मत्वं कर्मवर्गणाः ।
व्योमरूपत्वमायान्ति व्योमस्थाः किमु पुद्गलाः ।। ४९२।।
अन्वय :- • व्योमस्था: पुद्गलाः किमु व्योमरूपत्वं आयान्ति ? (अर्थात् न आयान्ति; तथा एव) आत्म-व्यवस्थिताः कर्मवर्गणाः आत्मत्वं न यान्ति ।
सरलार्थ :- विशाल लोकाकाश में व्याप्त अनंतानंत स्थूल तथा सूक्ष्म पुद्गल क्या कभी आकाशद्रव्यरूप परिणमित हो सकते हैं? नहीं, कदापि नहीं । आकाश, आकाशरूप रहता है और पुद्गल पुद्गलद्रव्यरूप ही रहते हैं। उसीप्रकार संसारी आत्मा के प्रदेशों में खचाखच / ठसाठस भरी हुई ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूप परिणमित कार्माणवर्गणाएँ आत्मतत्त्व/चेतनपने को प्राप्त नहीं हो सकती, वे सब कार्माणवर्गणाएँ पुद्गलरूप ही रहती हैं और आत्मा भी आत्मद्रव्यरूप ही रहता है
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भावार्थ :- इस श्लोक में ग्रंथकार ने आत्मा और पुद्गलद्रव्य की भिन्नता की बात समझाई । पुद्गलद्रव्य में भी आँखों से देखने में न आनेवाले कर्मरूप परिणत कार्मणवर्गणा की बात कही है, वह शास्त्रानुसार परम सत्य है ।
अज्ञानी तो प्रत्यक्ष में भिन्नरूप से विद्यमान दुकान, मकान, सोना, चाँदी को भी अज्ञान / कल्पना से अपना मान लेता है, इसकारण दुःखी होता है । अतः सुखी होना हो तो भेदज्ञान करना अनिवार्य है। शुद्ध जीव पुद्गल और जीव की विकारी अवस्था से कैसा भिन्न है, यह जानने के लिये समयसार की ४९ से ५५ तक की गाथाओं को टीका एवं भावार्थ के साथ जरूर देखें ।
जीव-पुद्गल जिसतरह परस्पर सदा से भिन्न थे, हैं और रहेंगे उसीतरह धर्मादि चारों द्रव्य आपस में और जीव-पुद्गलों से भी भिन्न ही थे, हैं और भिन्न ही रहेंगे। अनंतानंत द्रव्यों में से प्रत्येक द्रव्य एक-दूसरे से भिन्न ही हैं, उनमें अत्यन्ताभाव है, यह जिनेंद्र - कथित तत्त्वज्ञान का मूल है। जो इस मूलभूत भेदज्ञान को नहीं समझ पाता, उसे अध्यात्म समझ में आना अशक्य है । इस विषय को आचार्य अमृतचंद्र ने समयसार गाथा ३ की टीका में भी स्पष्ट किया है, उसे जरूर देखें । नामकर्मजन्य अवस्थाओं से आत्मा सदा भिन्न
स्थावराः कार्मणाः सन्ति विकारास्तेऽपि नात्मनः । शाश्वच्छुद्धस्वभावस्य सूर्यस्येव घनादिजाः ।।४९३।।
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