________________
चूलिका अधिकार
२९३
सरलार्थ :- यह जो विविक्त अर्थात् कर्मरूपी कलंक से रहित-अनादि अनंत, स्वभाव से सर्वथा शुद्ध, निर्भय, निरामय/निर्विकार अंतरंग ज्योति अर्थात् ज्ञानमय आत्मतत्त्व है, वही परम तत्त्व है, उससे भिन्न अन्य सब उपद्रव है।
भावार्थ :- समयसार में कलश १३८, १३९ व गाथा २०३ तथा इस गाथा की टीका में अपद और पद शब्द का प्रयोग करते हुए अत्यन्त प्रेरणादायी कथन किया है, जो मूलतः पठनीय है। समयसार के इस समग्र प्रकरण को यहाँ इस श्लोक में समेटने का प्रयास किया है। इनमें से मात्र कलश १३९ का अर्थ हम यहाँ दे रहे हैं - वह एक ही पद आस्वादन के योग्य है, जो कि विपत्तियों का अपद है (अर्थात् जिसमें आपदायें स्थान नहीं पा सकतीं) और जिसके आगे अन्य (सब) पद, अपद ही भासित होते हैं।"
यहाँ योगसार प्राभृत शास्त्र में अपद का भाव उपद्रव/ऊधम शब्द से बताया गया है। मुमुक्षुओं का स्वरूप -
न कुत्राप्याग्रहस्तत्त्वे विधातव्यो मुमुक्षुभिः ।
निर्वाणं साध्यते यस्मात् समस्ताग्रहवर्जितैः ।।४९०।। अन्वय :- मुमुक्षुभिः कुत्र अपि तत्त्वे आग्रहः न विधातव्यः; यस्मात् समस्त-आग्रहवर्जितैः निर्वाणं साध्यते ।
सरलार्थ :- जो मोक्ष के अभिलाषी/इच्छुक जीव हैं, उन्हें अन्य किसी भी तत्त्व का अर्थात् व्यवहार धर्म के साधन/निमित्तरूप पुण्यपरिणामों का अथवा शुभ क्रियाओं का आग्रह/हठ नहीं रखना चाहिए; क्योंकि जो समस्त प्रकार के आग्रहों से/एकांत अभिनिवेशों से रहित हो जाते हैं अर्थात् मध्यस्थ/सहज रहते हैं वे ही सिद्धपद को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ :- जिनधर्म में अपेक्षाओं को बहुत बड़ा महत्व है। जो जीव अपेक्षा नहीं जानते उनको तत्त्व का निर्णय होना कठिन है, फिर उन्हें धर्म कैसे प्रगट होगा?
आग्रही जीव को मोक्षमार्ग एवं मोक्ष नहीं होता, यह विषय समयसार शास्त्र में ४०८ से ४१३ पर्यंत की गाथाओं में, उनकी टीका तथा कलशों में भी बताया है। आचार्य पूज्यपाद ने भी समाधिशतक के ८७, ८८, ८९ श्लोकों में लिंग, जाति और ग्रंथ के आग्रह का निषेध किया है। ____ आचार्य श्री अमितगति ने मात्र एक श्लोक में उपरोक्त सर्व विषय बताने का सफल प्रयास किया है। मुमुक्षु की निर्विकल्पता -
कर्ताहं निर्वृतिः कृत्यं ज्ञानं हेतुः सुखं फलम् ।
नैकोऽपि विद्यते तत्र विकल्पः कल्पनातिगे।।४९१।। अन्वय :- अहं कर्ता, निर्वृतिः कृत्यं, ज्ञानं हेतुः सुखं (च) फलम् (अस्ति एतेषु सर्वेषु) एकः अपि विकल्पः तत्र कल्पनातिगे (ध्येयस्वरूप आत्मनि) न विद्यते।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/293]