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योगसार प्राभृत
ऐसा मनुष्य भय से सदा दुःखी रहता है; उसीप्रकार पंचेंद्रियों के भोगों में दुःख ही है, ऐसा निर्णय मोह से जिसे नहीं है, वह जीव मोक्षमार्ग में शंकित हुआ वर्तता है ।
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भावार्थ :- अनंत अरहंतों का उपदेश जिनवाणी में है। उस जिनवाणी के अध्ययन-मननचिंतन से और स्वानुभव से जब तक पंचेंद्रियों के भोगों में सुख नहीं है - एक अपनी आत्मा में ही सुख है, आत्मा स्वयमेव सुखमय ही है । इसतरह की श्रद्धा नहीं होती तबतक अज्ञानी जीव मोक्षमार्ग में निःशंक नहीं हो पाता । अतः आचार्य कुंदकुंद ने प्रवचनसार गाथा ८६ में स्पष्ट कहा है
"जिनशास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जाननेवाले के नियम से मोहोपचय / मोहसमूह का क्षय हो जाता है; इसलिए शास्त्र का सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना चाहिए ।' मोह का क्षय होने पर मोक्षमार्ग में जीव निःशंक होकर प्रवर्तता है; अतः मोह के नाश के लिए शास्त्र का अध्ययन करना चाहिए।
भोग का फल -
धर्मतोऽपि भवो भोगो दत्ते दुःख-परंपराम् ।
चन्दनादपि संपन्नः पावकः प्लोषते न किम् । । ४८१ । ।
अन्वय :
• ( यथा) चन्दनात् अपि सम्पन्नः पावकः किं न प्लोषते ? (प्लोषते एव; तथा ) धर्मतः अपि ( सम्पन्न:) भवः भोग: दुःख-परंपरां दत्ते ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार शीतलस्वभावी चंदन से भी उत्पन्न हुई अग्नि जलाने का ही काम करती है; उसीप्रकार पुण्यरूप व्यवहार धर्म से प्राप्त हुआ सहज भोग भी जीव को दुःख की परम्परा को ही देता है।
भावार्थ :- ग्रंथकार पंचेंद्रिय भोग का सत्य स्वरूप बताते हैं - वीतरागमय धर्म की साधना करते समय शुभ परिणामों से पुण्य तो होता ही है । उस पुण्य से सहज प्राप्त भोग को भोगनेरूप परिणाम भी दुःखरूप एवं दुःखकारक है। ज्ञानी जीव इसतरह भोग का सत्य स्वरूप जानते हैं; अतः उन्हें भोगों का आकर्षण नहीं रहता। जो भोगनेरूप कार्य देखने में मिलता है, वह कर्मोदयजन्य औदयिकभाव है । उसमें ज्ञानी आसक्त नहीं होते, इसलिए सुखी रहते हैं । जहाँ राग है वहाँ नियम से दुःख है। इसी विषय को छहढाला में अति मार्मिकता से कहा है
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यह
राग - आग दहै सदा, तातैं समामृत सेइए । चिर भजे विषय कषाय, अब तो त्याग निज पद वेइए ||
विद्वानों की दृष्टि में लक्ष्मी और भोग -
विपत्सखी यथा लक्ष्मीर्नानन्दाय विपश्चिताम् । न कल्मषसखो भोगस्तथा भवति शर्मणे ।। ४८२ ।।
अन्वय :- यथा विपत्सखी लक्ष्मीः विपश्चितां आनन्दाय न (भवति); तथा कल्मषसखः भोगः शर्मणे न भवति ।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/288]