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चूलिका अधिकार
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उसीप्रकार जिन्हें पंचेन्द्रियों के भोग वास्तव में माया के समान असत्य/आभासमात्र दिखाई देते हैं, वे महामना/महात्मा जीव भोगों को भोगते हुए भी आसक्ति के अभाव से निःसंग वर्तते हुए परमपद/मोक्ष को पाते हैं।
भावार्थ :-निज शुद्ध आत्मतत्त्व में रत ज्ञानी के भोग बंध के कारण नहीं हो सकते, इस विषय को इन दो श्लोकों में उदाहरण सहित बताया है।
मृगमरीचिका जितनी असत्य/झूठ एवं अवास्तविक है उतना ही असत्यपना ज्ञानी को भोगों में लगता है। ज्ञानी को आत्मा ही सुखसागरस्वरूप अनुभव में आता है। देखने में आनेवाला भोग का कार्य तो पूर्व कर्मोदय से होता है, उसका ज्ञानी मात्र ज्ञातादृष्टा है। यहाँ सम्यग्दर्शन की मुख्यता से मिथ्यात्व का बंध नहीं होता, यह बताना है। चारित्रमोहजन्य परिणामों के कारण जो होने योग्य बंध है, उसका यहाँ निषेध नहीं है। अध्यात्म में मिथ्यात्व के बंध को ही बंध माना जाता है। करणानयोग की सूक्ष्म कथन की सब विवक्षाएँ यहाँ मान्य करना चाहिए, जो ज्ञान के ज्ञेयरूप हैं। तत्त्वदृष्टिवंत जीव का स्वरूप -
___ भोगांस्तत्त्वधिया पश्यन् नाभ्येति भवसागरम् ।
___ मायाम्भो जानतासत्यं गम्यते तेन नाध्वना ।।४७९।। अन्वय :- (यथा) मायाम्भः असत्यं जानता तेनअध्वना न गम्यते (तथा) भोगान् तत्त्वधिया (असत्यं) पश्यन् भवसागरं न अभ्येति ।
सरलार्थ :- जैसे मृगमरीचिका को असत्य जल के रूप में देखते-जानते हुए ज्ञानी जीव पानी प्राप्त करने की इच्छा से उस मृगमरीचिका के रास्ते से नहीं जाते, मात्र ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं। वैसे पंचेंद्रियों के भोगों को तत्त्वदृष्टि से असत्य देखते-जानते हुए ज्ञानी जीव भवसागर को प्राप्त नहीं होते अर्थात् मोक्षमार्गी ही बने रहते हैं।
भावार्थ :- इस श्लोक में ग्रंथकार तत्त्वधिया/तत्त्वबुद्धि/तत्त्वदृष्टि शब्द से सम्यक्त्व की महिमा बताना चाहते हैं। वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान करना ही मूल कार्य है। जिसे सम्यग्दर्शन हो गया, उसका संसार सीमित हो गया तथा मोक्ष जाने का भी काल निश्चित हो गया है। इसलिए तत्त्वनिर्णय पूर्वक आत्मानुभूति करनेरूप कार्य ही मनुष्य जीवन में सर्वोत्तम कार्य है, ऐसा जानकर उसके लिये ही पुरुषार्थ करना चाहिए। तत्त्वदृष्टिहीन जीव का स्वरूप -
स तिष्ठति भयोद्विग्नो यथा तत्रैव शङ्कितः।
तथा निर्वृतिमार्गेऽपि भोगमायाविमोहितः ।।४८०॥ अन्वय :- यथा (मायाजले) शङ्कित: भय-उद्विग्नः सः (जीव:) तत्र (मायाजले) एव तिष्ठति; तथा भोगमायाविमोहितः (जीव:) अपि निर्वृतिमार्गे (शङ्कितः प्रवर्तति)।
सरलार्थ :- जिसप्रकार मृगमरीचिका अर्थात् मायाजल में जिसे असत्यपने का निर्णय नहीं है;
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/287]