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चारित्र अधिकार
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पक्का निर्णय होना । इसलिए मनुष्य अथवा प्रत्येक जीव को सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का एकमात्र पुरुषार्थ करना चाहिए। तदनंतर ही मुक्ति के प्रयास का मार्ग खुलता है। __ स्वामी समन्तभद्र ने सम्यग्दर्शन से सम्पन्न चाण्डाल-पुत्र को भी 'देव' लिखा है और श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट को भ्रष्ट ही निर्दिष्ट किया है क्योंकि उसे निर्वाण की सिद्धि/प्राप्ति नहीं होती। ___ इस सब कथन से यह साफ फलित होता है कि मुक्तिद्वेषी मिथ्यादृष्टि भवाभिनन्दी मुनियों की अपेक्षा देशव्रती श्रावक और अविरत-सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भी धन्य हैं, प्रशंसनीय हैं तथा कल्याण के भागी हैं। स्वामी समन्तभद्र ने ऐसे ही सम्यग्दर्शन-सम्पन्न सद्गृहस्थों के विषय में निम्नानुसार लिखा है
"गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो, निर्मोहो नैव मोहवान्।
अनगारो गृही श्रेयान्, निर्मोहो मोहिनो मुनेः ।। मोह (मिथ्यादर्शन) रहित गृहस्थ मोक्षमार्गी है। मोहसहित (मिथ्यादर्शनयुक्त) मुनि मोक्षमार्गी नहीं है। (और इसलिए) मोही/मिथ्यादृष्टिमुनि से निर्मोही सम्यग्दृष्टि गृहस्थ श्रेष्ठ है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि मुनिमात्र का दर्जा/स्थान गृहस्थ से ऊँचा नहीं है, मुनियों में मोही और निर्मोही दो प्रकार के मुनि होते हैं । मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ का दर्जा ऊँचा है, श्रेष्ठ है । इसमें मैं इतना और जोड़ देना चाहता हूँ कि अविवेकी मुनि से भी विवेकी गृहस्थ श्रेष्ठ है और इसलिए उसका दर्जा/स्थान अविवेकी मुनि से ऊँचा है।
जो भवाभिनन्दी मुनि मुक्ति से अन्तरंग में द्वेष/अरुचि रखते हैं, वे जैन मुनि अथवा श्रमण कैसे हो सकते हैं? नहीं हो सकते । जैन मुनियों का तो प्रधान लक्ष्य ही मुक्ति प्राप्त करना होता है। उसी लक्ष्य को लेकर जिनमुद्रा धारण की सार्थकता मानी गयी है। यदि वह लक्ष्य ही नहीं है, तो जैन मुनिपना भी संभव नहीं है । जो मुनि उस लक्ष्य से भ्रष्ट हैं, उन्हें जैनमुनि नहीं कह सकते - वे भेषी/ ढोंगी मुनि अथवा श्रमणाभास हैं। मुक्तिमार्ग के नाशक जीव -
संज्ञानादिरुपायो यो निर्वृतेर्वर्णितो जिनैः।
मलिनीकरणे तस्य प्रवर्तन्ते मलीमसाः ।।३८१।। अन्वय :- निर्वृतेः यः संज्ञानादिः उपाय: जिनैः वर्णितः (अस्ति), मलीमसाः तस्य मलिनीकरणे प्रवर्तन्ते ॥२५॥
सरलार्थ :- जिनेन्द्र देवों ने कहा हुआ मुक्ति के उपायभूत रत्नत्रयस्वरूप सम्यग्ज्ञानादि को मलिनचित्त जीव मलिन करने में प्रवृत्त होते हैं। भावार्थ :- सोमदेवसूरि ने अपने ग्रंथ में स्पष्ट शब्दों में कहा है -
पंडितैभ्रष्टचारित्रैर्जठरैश्च तपोधनैः।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/239]