________________
२३८
योगसार-प्राभृत
अथवा पर्यायगत योग्यता की मुख्यता से विचार किया जाय तो आसन्नभव्य अर्थात् जिनका संसार का किनारा नजदीक आ गया है ऐसे भव्यों को मुक्ति की प्राप्ति होती है, अन्य भव्यजीवों को नहीं। संसार में अनंत भव्यजीव भी अनंतकाल पर्यंत दुःखमय अवस्थारूप संसार में ही रुलेंगे, ऐसा कथन जिनेन्द्र भगवान की वाणी में आया है; क्योंकि यह तीन लोकमय जगत भव्यजीवों से कभी खाली होगा ही नहीं, यह नियम है। ___आसन्नभव्यता की बात सागारधर्मामृत शास्त्र में आयी है और अति प्राचीन शास्त्र कार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाथा ३०६ में संसारतडे नियडो अर्थात् जिनका संसार का किनारा नजदीक आ गया है, ऐसे भव्य जीव को ही सम्यक्त्व/मोक्षमार्ग प्रगट होता है, यह कथन मिलता है। भवाभिनन्दी, मुक्ति का द्वेषी -
कल्मष-क्षयतो मुक्तिर्भोग-सङ्गमवर्जिनाम् ।
भवाभिनन्दिनामस्यां विद्वेषो मुग्धचेतसाम् ।।३७९।। अन्वय :- भोग-सङ्गम-वर्जिनां कल्मष-क्षयतः मुक्तिः (जायते) । मुग्धचेतसां भवाभिनन्दिनां अस्यां (मुक्त्यां) विद्वेषः (वर्तते)।
सरलार्थ :- जो पंचेंद्रियों के स्पर्शादि भोग्यरूप विषयों के संपर्क से रहित हैं अथवा इंद्रियविषयों के भोगों से और संपूर्ण बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह से सर्वथा विरक्त हैं, उन मुनिराजों के ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का नाश होने से उन्हें मुक्ति की प्राप्ति होती है। मूढचित्त अर्थात् मिथ्यादृष्टि भवाभिनन्दी जीवों का इस मुक्ति से अतिशय द्वेषभाव रहता है।
भावार्थ :- इस श्लोक के पूर्व भाग में मुक्ति के उपादान कारण व निमित्त कारण – दोनों का ज्ञान कराया है - जैसे भोग एवं परिग्रह से विरक्तता अर्थात् वीतराग परिणाम को बताकर जीवगत उपादान कारण को स्पष्ट किया और आठों कर्मों का अभाव कहकर निमित्त कारण का खुलासा किया है। श्लोक की दूसरी पंक्ति में मिथ्यात्वजन्य अभिप्राय की भयंकरता बताई है। प्रत्यक्ष द्वेष करने की आवश्यकता नहीं है, भोगों के प्रति आकर्षण ही मुक्ति का द्वेष है। सम्यक्त्व का माहात्म्य -
नास्ति येषामयं तत्र भवबीज-वियोगतः।
तेऽपि धन्या महात्मानः कल्याण-फल-भागिनः ।।३८०।। अन्वय :- येषां भवबीज-वियोगतः तत्र (मुक्त्यां) अयं (विद्वेषः) न अस्ति, ते महात्मान: अपि धन्याः च कल्याण-फल-भागिनः (सन्ति)।
सरलार्थ :- जिनके जीवन में अनंत दुःख का कारणरूप भवबीज अर्थात् मिथ्यादर्शन का वियोग/अभाव होने से मुक्तिसंबंधी का द्वेषभाव नहीं रहा, वे महात्मा भी धन्य हैं, प्रशंसनीय हैं और वे कल्याणरूप फल के भागी हैं। ____भावार्थ :- मात्र मिथ्यादर्शन के अभाव करनेवालों को इस श्लोक में महात्मा एवं धन्य कहा है; क्योंकि मिथ्यादर्शन के अभाव का अर्थ है, संसार सीमित होना एवं अल्पकाल में मुक्ति-प्राप्ति का
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/238]