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योगसार-प्राभृत
विवर्जितं, निराकृत-परापेक्षं, निर्विकारं, अयाचनं, जातरूपधरं जैनं लिङ्ग निर्वृति-कारणं (जायते)।
सरलार्थ :- जो सदा ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग से सहित है, सावद्यकर्मरूप आरम्भ से रहित है, जिसमें दाढी, मूंछ तथा मस्तक के केशों का लोंच किया जाता है, तेल मर्दनादि रूप में शरीर का संस्कार नहीं किया जाता, जो बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों से मुक्त, पर की अपेक्षा से रहित, याचना-विहीन, विकार-विवर्जित और जो नवजात शिशु के समान वस्त्राभूषण से रहित दिगम्बर स्वरूप है, वह जैन अर्थात् जिनलिंग है, जो कि मोक्ष की प्राप्ति में निमित्त कारण है।
भावार्थ :- इन दो श्लोकों में जिनलिंग के नौ विशेषण बताये हैं। यह जिनलिंग मुक्ति-प्राप्ति में निमित्त कारण है। शास्त्र में अनेक स्थान पर निमित्त की मुख्यता से कथन करने की पद्धति जाननेदेखने को मिलती है। जैसे आचार्य कुंदकुंद ने नग्गो हि मोक्खमग्गो ऐसा कहा है। ऐसे स्थान पर उपादान को गौण किया है; लेकिन उपादान का निषेध नहीं किया है; ऐसा समझना चाहिए; क्योंकि कोई भी कार्य मात्र निमित्त से होता ही नहीं।
उसी तरह शास्त्र में अनेक स्थान पर उपादान की मुख्यता से कथन करने की पद्धति जाननेदेखने को मिलती है। जैसे उमास्वामी आचार्य ने सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ऐसा कहा है। ऐसे स्थान पर निमित्त को गौण किया गया है, उसका निषेध नहीं किया है। प्रत्येक कार्य में उपादान और निमित्त – दोनों कारण होते ही हैं। कार्य तो उपादान में होता है और वहाँ अनुकूल निमित्त नियम से होता है; ऐसा समझना चाहिए।
इस श्लोक के विशेष स्पष्टीकरण के लिए प्रवचनसार गाथा - २०५ एवं २०६ देखें एवं इनकी टीका एवं भावार्थ भी अवश्य पढ़ें। दीक्षागुरु एवं दीक्षार्थी का स्वरूप -
नाहं भवामि कस्यापि न किंचन ममापरम् । इत्यकिंचनतोपेतं निष्कषायं जितेन्द्रियम् ।।३६०।। नमस्कृत्य गुरुं भक्त्या जिनमुद्रा-विभूषितः ।
जायते श्रमणोऽसङ्गो विधाय व्रत-संग्रहम् ।।३६१।। अन्वय :- अहं कस्यापि न भवामि, अपरं मम किंचन न अस्ति - इति अकिंचनता-उपेतं निष्कषायं जितेन्द्रियं गुरुं भक्त्या नमस्कृत्य व्रत संग्रहं विधाय (य:) असङ्गः जिनमुद्रा-विभूषितः जायते (सः) श्रमणः (अस्ति)।
सरलार्थ :- मैं किसी का नहीं हूँ और न कोई अन्य मेरा है - ऐसे अकिंचन/अपरिग्रह भाव से सहित निष्कषाय व जितेन्द्रिय गुरु को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके व्रतसमह (अहिंसा महाव्रतादि
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