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________________ चारित्र-अधिकार जिनलिंग धारण करना चा विमुच्य विविधारम्भं पारतन्त्र्यकरं गृहम् । मुक्तिं यियासता धार्यं जिनलिङ्गं पटीयसा ।।३५७।। अन्वय :- मुक्तिं यियासता पटीयसा विविधारम्भं पारतन्त्र्यकरं गृहं विमुच्य जिनलिङ्गंधार्यम् । सरलार्थ :- जो भव्य मनुष्य मुक्ति-प्राप्त करने का इच्छुक हों, अति निपुण हों, उसे अनेक प्रकार के आरंभों से सहित और अत्यंत पराधीनता का कारण घर अर्थात् गृहस्थपने का त्याग कर यथाजात जिनलिंग अर्थात् दिगम्बर मुनिदीक्षा धारण करनी चाहिए। भावार्थ :- अबतक ग्रंथकार ने जीवादि सात तत्त्वों का कथन किया है । संवर एवं निर्जरा तत्त्व के कथन के समय सहज चारित्र का कथन हो चुका है और मोक्षतत्त्व में चारित्र का फल भी बताया गया है। इतना सब होने पर भी ग्रंथकार को पुनः चारित्र अधिकार लिखने का भाव हुआ है। इसमें ग्रंथकार ने आचार्य कुंदकुंद के प्रवचनसार शास्त्र के चरणानुयोग चूलिका के बहुभाग का अनुकरण किया है। जहाँ जिस श्लोक का सीधा संबंध चरणानुयोग चूलिका के गाथाओं से है, वहाँ हम उस गाथा का उल्लेख भावार्थ में करेंगे ही। - प्रवचनसार गाथा २०१ का भाव यहाँ बताने का ग्रंथकार ने सफल प्रयास किया है। मूल गाथा का अर्थ इसप्रकार है – 'यदि दुःखों से परिमुक्त होने की/छुटकारा पाने की इच्छा हो तो, पूर्वोक्त प्रकार से बारंबार सिद्धों को, जिनवर वृषभों को तथा श्रमणों को प्रणाम करके श्रामण्य को अंगीकार करो।' २०१ से २०३ पर्यंत की गाथाएँ, उनकी टीका एवं भावार्थ में भी इस विषय का विशेष खुलासा आया है। जिनलिंग का स्वरूप - सोपयोगमनारम्भं लुञ्चित-श्मश्रुमस्तकम् । निरस्त-तनु-संस्कारं सदा संग-विविर्जितम् ।।३५८।। निराकृत-परापेक्षं निर्विकारमयाचनम् । जातरूपधरं लिङ्गं जैनं निर्वृति-कारणम् ।।३५९।। अन्वय :- सदा सोपयोगं, अनारम्भं, लुञ्चित-श्मश्रु-मस्तकं, निरस्त-तनु-संस्कार, संग [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/227]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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