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मोक्ष अधिकार
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वस्तु-व्यवस्था ही इतनी मधुर और अलौकिक है कि दुःखमय संसार अवस्था से अलग होकर मात्र अनंत सुखमय अवस्थारूप मोक्ष तो प्राप्त होता है, लेकिन पुनः सर्वथा सुखमय सिद्धावस्था को छोड़कर दुःखमय संसार में भटकना नहीं होता। जैसे दूध से विशिष्ट प्रक्रियापूर्वक घी तो निकाला जा सकता है; परंतु घी पुनः दूधरूप परिणत नहीं होता । सुवर्ण का दृष्टांत भी प्रसिद्ध ही है। सिद्धात्मा, शरीर ग्रहण नहीं करते -
शरीरं न स गृह्णाति भूयः कर्म-व्यपायतः।
कारणस्यात्यये कार्यं न कुत्रापि प्ररोहति ।।३२१।। अन्वय :- सः (मुक्तात्मा) कर्म-व्यपायत: भूयः शरीरं न गृह्णाति (यतः) कारणस्य अत्यये कार्यं कुत्र अपि न प्ररोहति।
सरलार्थ :- अनंत सुखी एवं शरीर रहित मुक्तात्मा ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का विनाश हो जाने से पुनः विनाशीक शरीर को ग्रहण नहीं करते; क्योंकि कारण का नाश हो जाने पर कहीं और कभी भी कार्य उत्पन्न नहीं होता।
भावार्थ :- सिद्धात्मा संसारी नहीं होते - इसीका पुनः खुलासा किया है और इस श्लोक में नामकर्मरूप कारण का अभाव ही हो गया है, अतः शरीर पुनः प्राप्त न होने की बात भी कही है। ज्ञान, जड़ का धर्म नहीं -
न ज्ञानं प्राकृतो धर्मो मन्तव्यो मान्य-बुद्धिभिः ।
अचेतनस्य न ज्ञानं कदाचन विलोक्यते ।।३२२।। अन्वय :- मान्य-बुद्धिभिः ज्ञानं प्राकृतः धर्मः न मन्तव्यः (यतः) अचेतनस्य (पदार्थस्य) ज्ञानं कदाचन न विलोक्यते।
सरलार्थ :- जो मान्यबुद्धि अर्थात् विवेकशील विद्वान् हैं, उन्हें ज्ञान गुण को प्रकृति अर्थात् जड का धर्म नहीं मानना चाहिए; क्योंकि अचेतन पदार्थ में ज्ञानगुण कभी किसी को प्रत्यक्ष में देखने को नहीं मिलता।
भावार्थ :- इस श्लोक में सांख्यमतानुयायी शिष्य को अत्यंत सन्मानपूर्वक समझाने का प्रयास किया है। सांख्य मूल में दो पदार्थ अर्थात् प्रकृति और पुरुष मानते हैं । वहाँ प्रकृति स्वयं जड़ है तथा उसका धर्म ज्ञान है और पुरुष अर्थात् आत्मा ज्ञानगुण से हीन है, ऐसा भी मानते हैं। उन्हें प्रत्यक्षरूप ज्ञान से समझा रहे हैं कि अचेतन में ज्ञान देखने को नहीं मिलता। जो कोई जीव प्रत्यक्षज्ञान से ज्ञात विषय को भी नहीं मानता उसे कौन समझा सकता है ? अर्थात् कोई समझा नहीं सकता। कर्मो के नाश के समान ज्ञान का नाश नहीं -
दुरितानीव न ज्ञानं निर्वृतस्यापि गच्छति ।
काञ्चनस्य मले नष्टे काञ्चनत्वं न नश्यति ।।३२३।। अन्वय :- (यथा) काञ्चनस्य मले नष्टे काञ्चनत्वं न नश्यति (तथा एव) निर्वृतस्य (सिद्धस्य)
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/209]