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निर्जरा अधिकार
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पर नष्ट हो जाता है । इसलिए अन्तरात्मा योगी को अपनी शक्ति के अनुसार दुःखों के साथ आत्मा की शरीरादि से भिन्न भावना करनी चाहिए।" प्राप्त सुख-दुःख में समताभाव से निर्जरा -
अनुबन्धः सुखे दुःखे न कार्यो निर्जरार्थिभिः ।
आर्तं तदनुबन्धेन जायते भूरिकर्मदम् ।।२७९।। अन्वय :- निर्जरार्थिभिः सुखे-दुःखे अनुबन्धः न कार्य: तदनुबन्धेन भूरिकर्मदं आर्त (ध्यान) जायते।
सरलार्थ :- निर्जरातत्त्व के इच्छुक साधकों को सहजरूप से प्राप्त सुख-दुःख में अनुबन्ध अर्थात् अनुवर्तनरूप प्रवृत्ति नहीं रखना चाहिए; क्योंकि उस आसक्ति से ही आर्तध्यान होता है, जो अनेक कर्मों के बंध का दाता है।
भावार्थ :- जो कर्मों की निर्जरा के इच्छुक हैं, उन्हें आचार्य महोदय ने यहाँ एक बड़ा ही सुन्दर एवं हितकारी उपदेश दिया है और वह यह है कि उन्हें परीषहों के उपस्थित होने पर जो दुःख होते हैं
और परीषहों के अभाव में जो सुख प्राप्त होता है उन सुख-दुःख दोनों के साथ अपने को बाँधना नहीं चाहिए अर्थात् सुखी-दुःखी नहीं होना चाहिए, क्योंकि सुखी-दुःखी होने से आर्त-रौद्रध्यान होता है, जो बहुत अधिक कर्मबन्ध का कारण होता है और उससे निर्जरा का लक्ष्य नष्ट हो जाता है। पिछले श्लोक (६) में कहा भी है कि यदि सरोवर में नये जल का प्रवेश हो रहा है तो सरोवर की रिक्तता कैसी? अतः नये कर्मबन्ध को प्राप्त न हों और पुराने कर्मों का विच्छेद हो जाये तभी निर्जरा की सार्थकता है । इसके लिये उदय को प्राप्त हुए कर्मों में राग-द्वेष न करके समता भाव रखने की बहुत जरूरत है।
यह समताभाव ही वीतरागता है: जो धर्म है। मनिजीवन में यह वीतराग-भाव मिथ्यात्व एवं तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक प्रगट होता है, इससे संवर-निर्जरा होते हैं। अविरत सम्यक्त्व और देशविरत गुणस्थान में क्रमशः एक और दो कषाय चौकडी के अभाव से वीतरागता रहती ही है और उससे इन दोनों गुणस्थानों में यथायोग्य संवर-निर्जरा होती है।
श्रावक भी अपनी भूमिका के अनुसार सुख-दुःख में समताभाव रखता है। आत्मज्ञान से ही आत्मा शुद्ध होता है -
आत्मावबोधतो नूनमात्मा शुद्ध्यति नान्यतः।
अन्यतः शुद्धिमिच्छन्तो विपरीतदृशोऽखिलाः ।।२८०।। अन्वय :- नूनं आत्मा आत्म-अवबोधतः शुद्ध्यति, अन्यत: न । अन्यतः शुद्धिं इच्छन्त: अखिला: विपरीतदृशः (सन्ति )।
सरलार्थ :- वास्तविक देखा जाय तो संसार-स्थित अशुद्ध आत्मा निज शुद्धात्मा को प्रत्यक्ष करने से ही/आत्मज्ञान/आत्मानुभव से ही पर्याय में शुद्ध/पवित्र/वीतरागमय हो जाता है; अन्य
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