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योगसार-प्राभृत
के अगुरुलघुत्व गुण के विवेचन में भी इस विषय का विशेष स्पष्टीकरण आपको मिलेगा। परीषहजय का लाभ -
स्वात्मानमिच्छुभिर्ज्ञातुं सहनीयाः परीषहाः।
नश्यत्यसहमानस्य स्वात्म-ज्ञानं परीषहात् ।।२७८।। अन्वय :- स्व-आत्मानं ज्ञातुं इच्छुभिः परीषहाः सहनीयाः। (परीषहान्) असहमानस्य स्व-आत्म-ज्ञानं परीषहात् नश्यति ।
सरलार्थ :- अपने आत्मा को जानने के इच्छुक साधुओं को समागत परीषहों को सहन करना चाहिए; क्योंकि यदि सहज उपस्थित परीषहों को मुनिराज सहन नहीं करते हैं, तो उनका प्राप्त किया हुआ आत्म-ज्ञान परीषहों के उपस्थित होनेपर स्थिर नहीं रहता अर्थात् नाश को प्राप्त हो जाता है। ___ भावार्थ :- तत्त्वार्थ सूत्र के नौवें अध्याय के आठवें सूत्र में कहा है कि मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः अर्थात् संवर के मार्ग से च्युत न होने और कर्मों की निर्जरा के लिये परीषह सहन करना चाहिए । परीषहों को सहन करना चाहिए; यह चरणानुयोग के अनुसार उपदेश की भाषा में कही गयी बात है। परीषहों को सहन करना, यह तो मुनिराजों के स्वरूप में ही गर्भित है। आत्मा को जानने के इच्छुक यह विशेषण भी भूतनैगमनय की दृष्टि से कहा है ऐसा समझें; क्योंकि मुनिराज तो आत्मा को जानते ही हैं अथवा आत्मज्ञान के साथ २८ मूलगुणों को पालनेवालों को ही साधु अथवा मुनिराज कहते हैं।
क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, डाँस-मच्छर, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन - ये २२ परीषह हैं। इनका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्र शास्त्र की टीका सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रंथों में है, जिज्ञासु वहाँ से जानें।
प्रश्न :- परीषह और परीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर :- मुनिराज के जीवन में सहज प्राप्त दुःख या कष्ट को/प्रतिकूलता को परीषह कहते हैं। यदि दुःख के कारण मिलने पर भी दुःखी न हो तथा सुख के कारण मिलने पर भी सुखी न हो; किन्तु ज्ञेयरूप से उनका जाननेवाला ही रहे, तभी वह परीषहजय है। आचार्य पूज्यपाद ने भी समाधिशतक श्लोक १०२ में लिखा है कि -
“अदुःखभावितं ज्ञानं, क्षीयते दुःखसन्निधौ।
तस्माद्यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः।। श्लोकार्थ :- जो भेदविज्ञान दुःखों की भावना से रहित है - उपार्जन के लिये कुछ कष्ट उठाये बिना हि सहज सुकुमार उपायों द्वारा बन जाता है-वह परीषह-उपसर्गादिक दुःखों के उपस्थित होने
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/184]