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________________ १६४ योगसार-प्राभृत प्रश्न :- आहार-विहारादि शारीरिक क्रियाओं को करते हुए मुनिराज को हमने प्रत्यक्ष देखा है और यहाँ श्लोक में शरीर के कार्य में मुनिराज प्रवृत्त नहीं होते ऐसा कथन आया है। वह कैसे? उत्तर :- बाह्य में शरीर की क्रिया करते हुए मुनिराज देखने में आते हैं; तथापि मुनिराज तो इन क्रियाओं के मात्र ज्ञाता हैं, क्योंकि उन्हें शरीर में एकत्व-ममत्व-कर्तृत्व-भोक्तृत्वबुद्धि किंचित् भी नहीं है। ___ शरीर तो आहारवर्गणारूप पुद्गलों से बना है। उसका कर्ता तो मात्र अचेतन पुद्गल है। ज्ञानघनपिण्ड चेतन का तो पुद्गलमय शरीर में अत्यन्त अभाव है। अतः शरीर की क्रिया का कर्ता जीव कभी भी नहीं हो सकता। __ शरीर एवं शरीर की क्रियाओं के मुनिराज मात्र ज्ञाता रहते हैं, कर्ता नहीं, यह अकर्तापना ही कायोत्सर्ग है। संवरक योगी का स्वरूप - यः षडावश्यकं योगी स्वात्मतत्त्व-व्यवस्थितः। अनालस्यः करोत्येव संवृतिस्तस्य रेफसाम् ।।२४३।। अन्वय :- स्व-आत्म-तत्त्व-व्यवस्थितः अनालस्यः यः योगी षट् आवश्यकं करोति तस्य एव रेफसां (पुण्य-पाप-कर्मणां) संवृतिः (जायते)। सरलार्थ :- जो योगी अर्थात् मुनिराज निज शुद्धात्म तत्त्व में विशेषरूप से अवस्थित अर्थात् लीन रहते हैं और प्रमाद से रहित होकर सामायिक आदि षट् आवश्यकों को करते हैं, उनके पुण्यपापरूप कर्मों का संवर होता है। भावार्थ :- इस श्लोक में योगी के जो दो विशेषण दिये गये हैं, वे विशेष हैं - पहला स्वात्मतत्त्व-व्यवस्थितः और दूसरा अनालस्यः । ये दोनों विशेषण मुनिराज की अप्रमत्त अवस्था का ज्ञान कराते हैं। अविरत सम्यक्त्व नामक चौथे गुणस्थान से ही संवर का प्रारम्भ होता है। यहाँ अप्रमत्तविरत नामक सातवें एवं उससे आगे के गुणस्थानों की ओर संकेत मुख्यरूप से है। अतः इन गुणस्थानवर्ती महापुरुषों को तो विशेष संवर होता ही है। सम्यक्दृष्टि को तो मात्र एक कषाय चौकडी के अभावपूर्वक संवर/वीतरागता होती है और अप्रमत्तविरतादि गुणस्थान में तीन कषाय चौकडी के अभावपूर्वक विशेष वीतरागता निरन्तर होती है; अतः इन जीवों को संवर उत्तरोत्तर अधिक होना स्वाभाविक है । क्षपकश्रेणी के अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानवी जीवों की ओर संकेत करने का ग्रंथकार का भाव है; ऐसा यहाँ प्रतीत होता है। प्रश्न :- जब मुनिराज अप्रमत्तादि गुणस्थान में विराजमान हैं, तब उन्हें सामायिक आदि षट् आवश्यक क्रिया करने का विकल्प कैसे सम्भव है? तथापि इस श्लोक में योगी षट् आवश्यकों को करते हैं, ऐसा लिखा है, यह कैसे घटित होता है? [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/164]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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