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द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा फल भोगने की व्यवस्था
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पर्याय एवं द्रव्य अपेक्षा का उदाहरण -
य एव कुरुते कर्म किंचिज्जीवः शुभाशुभम् ।
स एव भजते तस्य द्रव्यार्थापेक्षया फलम् ।। २१४।।
अन्वय :
द्रव्यार्थ - अपेक्षया यः एव जीव: किंचित् शुभ-अशुभं कर्म कुरुते, सः एव (जीव:) तस्य फलं भजते ।
सरलार्थ :- द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से जो जीव जो कुछ शुभ-अशुभ कर्म करता है, वही जीव उसका फल भोगता है ।
भावार्थ :- द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से जो जीव शुभ या अशुभ कर्म करता है, वही उसके फल को भोगता है, चाहे किसी भी पर्याय में क्यों न हो। जिस जीव ने मनुष्य पर्याय में तप-संयमादि के द्वारा पुण्योपार्जन किया, वही मरकर देवगति में गया और वहाँ उसने अपने उस पूर्वकृत पुण्य के फल को भोगा ।
मनुष्यः कुरुते पुण्यं देवो वेदयते फलम् ।
आत्मा वा कुरुते पुण्यमात्मा वेदयते फलम् ।। २१५ ।।
योगसार प्राभृत
अन्वय :- - (यथा) मनुष्यः पुण्यं कुरुते देवः फलं वेदयते । वा आत्मा पुण्यं कुरुते आत्मा (एव) फलं वेदयते । सरलार्थ :- जैसे मनुष्य पुण्य कर्म करता है और देव उसका फल भोगता है अथवा आत्मा पुण्य-कर्म करता है और आत्मा ही उसके फल को भोगता है।
भावार्थ :- उपरिम श्लोक के भावार्थ में ही इस श्लोक का भी भावार्थ आ चुका है। द्रव्य - पर्याय अपेक्षा से जीव का स्वरूप -
नित्यानित्यात्मके जीवे तत्सर्वमुपपद्यते ।
न किंचिद् घटते तत्र नित्येऽनित्ये च सर्वथा ।। २१६।।
अन्वय :- नित्य-अनित्यात्मके जीवे तत् (पूर्वोक्तं) सर्वं उपपद्यते । च सर्वथा नित्येअनित्ये तत्र किंचित् (अपि) न घटते ।
सरलार्थ :- जीव को कथंचित् नित्य अनित्य मानने पर उक्त सब कथन ठीक / योग्य घटित हो जाता है, सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य मानने पर कुछ भी घटित नहीं होता ।
भावार्थ :- जीव को द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्यायदृष्टि से अनित्य मानने पर यह सब कुछ ठीक घटित होता है; परन्तु जीव को सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य मानने पर यह कुछ भी घटित नहीं होता । क्योंकि सर्वथा नित्य में परिणाम, विक्रिया, अवस्था से अवस्थान्तर कुछ भी नहीं बनता और सर्वथा अनित्य में जब जीव का क्षण-भर में मूलतः / निरन्वय विनाश हो जाता है तब वह अपने किये हुये कर्म का फल कैसे भोग सकता है? उसके परलोक गमन तथा अन्य शरीर धारणादि ही नहीं बन
[C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/148]