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योगसार प्राभृत
भावार्थ :- व्यवहारनय और निश्चयनय से शरीर के सन्दर्भ में समयसार गाथा २७ में भी कथन आया है, जो निम्नप्रकार है -
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"ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को । ण दु णिच्छयस्य जीवो देहो य कदा वि एक्कट्टो ||
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गाथार्थ :- व्यवहारनय तो यह कहता है कि जीव और शरीर एक ही है; किन्तु निश्चयनय के अभिप्राय से जीव और शरीर कभी भी एक पदार्थ नहीं हैं।
व्यवहार एवं निश्चयनय संबंधी मोक्षमार्गप्रकाशक के ७ वें अध्याय में पृष्ठ २५१ पर किया हुआ कथन अत्यन्त उपयोगी है, उसे यहाँ आगे दे रहे हैं.
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'व्यवहारनय स्वद्रव्य - परद्रव्य को व उनके भावों को व कारणकार्यादि को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है; सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व है; इसलिए उसका त्याग करना । तथा निश्चयनय उन्हीं को यथावत् निरूपण करता है, किसी को किसी में नहीं मिलाता है; सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है; इसलिए उसका (निश्चयनय के विषय का) श्रद्धान करना । " निश्चयनय से शरीरादि को आत्मा का मानने से आपत्ति
तत्त्वतो यदि जायन्ते तस्य ते न तदा भिदा ।
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दृश्यते, दृश्यते चासौ ततस्तस्य न ते मता: ।।२११।।
अन्वय :- तत्त्वत: यदि ते (शरीरादयः) तस्य (आत्मन:) जायन्ते, तदा भिदा न दृश्यते । दृश्यते च असौ, तत: ते (शरीरादयः) तस्य (आत्मनः) न मता: ।
सरलार्थ :- यदि तत्त्वदृष्टि से अर्थात् निश्चयनय से ये सब शरीर, इन्द्रिय आदि आत्मा के हैं, ऐसा माना जाये तो आत्मा और शरीर आदि में भेद दिखाई नहीं देना चाहिए; परन्तु इनमें भेद तो प्रत्यक्ष दिखाई देता है; इसलिए शरीरादि आत्मा के नहीं माने गये हैं ।
भावार्थ :- इस श्लोक में ग्रंथकार ने व्यवहारनय के कथन में असत्यता का दोष बताकर निश्चयनय के कथन को सत्य सिद्ध किया है। सही देखा जाय तो निश्चयनय के विषयभूत आत्मा के आश्रय से ही धर्म प्रगट होता है, बढ़ता है, पूर्ण होता है और पूर्ण प्रगट हुआ धर्म सदैव बना रहता है, इसी विषय को समयसार गाथा २७२ में कहा भी है:
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णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं ।
गाथार्थ • निश्चयनय के आश्रित मुनि निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
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इसी प्रसंग में निश्चयनय प्रतिषेधक और व्यवहारनय प्रतिषेध्य है, इस विषय को गाथा २७६, २७७ तथा उसकी टीका एवं भावार्थ के आधार से यथार्थरूप से समझना चाहिए।
दोनों नयों से स्व-पर को जानने का फल -
विज्ञायेति तयोर्द्रव्यं परं स्वं मन्यते सदा । आत्म-तत्त्वरतो योगी विदधाति स संवरम् ।। २१२ ।।
[C:/PM65/smarakpm65/ annaji/yogsar prabhat.p65/146]