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बन्ध अधिकार
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अन्वय :- सुगतिं दुर्गतिं प्राप्तः (जीव:) कलेवरं स्वीकरोति । तत्र (कलेवरे) इन्द्रियाणि जायन्ते, ततः (इन्द्रियत:) विषयान् गृह्णाति।
सरलार्थ :- देव-मनुष्यरूप सुगति और नरक-तिर्यंचरूप-दुर्गति को प्राप्त हुआ जीव उसउस गतियोग्य शरीर को ग्रहण करता है। उस शरीर में यथायोग्य इंद्रियाँ उत्पन्न होती हैं और उन इंद्रियों से स्पर्शादि विषयों को ग्रहण करता है।
भावार्थ :- पिछले श्लोक में कर्मफल से जिस सुगति या दुर्गति को जाने की बात कही गयी है, उसको प्राप्त होकर यह जीव नियम से देह धारण करता है - चाहे वह देव, मनुष्य तिर्यंचादि किसी भी प्रकार की क्यों न हो । देह में इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है - चाहे एक स्पर्शन इन्द्रिय ही क्यों न हो । इन्द्रियों से उनके विषय - स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण तथा शब्द का ग्रहण होता है। इस तरह संसार में जीवों की प्रवृत्ति प्रत्यक्ष ही देखने को मिलती है।
इस श्लोकगत विषय को ही पंचास्तिकाय संग्रह गाथा १२९, १३० में बताया गया है। रागादि भावों से दुःख -
ततो भवन्ति रागाद्यास्तेभ्यो दुरित-संग्रहः।
तस्माद् भ्रमति संसारे ततो दुःखमनेकधा ।।१७९।। अन्वय :- ततः (विषय-ग्रहणतः) रागाद्याः भवन्ति । तेभ्यः (रागादिभ्यः) दुरित-संग्रहः (जायते)। तस्मात् (जीव:) संसारे भ्रमति । ततः (संसारतः) अनेकधा-दुःखं (प्राप्नोति)।
सरलार्थ :- प्राप्त इंद्रियों से विषय-ग्रहण के कारण राग-द्वेषादिक उत्पन्न होते हैं। रागादिक से पुण्य-पापरूप दुःखद कर्मों का संचय-अर्थात् बन्ध होता है और उस कर्मबन्ध के कारण अनेक प्रकार का दुःख प्राप्त होता है।
भावार्थ :- विषयों के ग्रहण से राग-द्वेषादिक उत्पन्न होते हैं और राग-द्वेषादि की उत्पत्ति से पुनः नवीन कर्मबन्ध होता है और कर्मबन्ध के फलस्वरूप पुनः गति, सुगति, देह, इन्द्रिय विषयग्रहण, राग-द्वेष और पुनः कर्मबन्धादि के रूप में संसार-परिभ्रमण होता है । इस संसार-परिभ्रमण में अनेकानेक प्रकार के दुःखों को सहन करना पड़ता है, इन सबका वर्णन करना अशक्य है।
मनुष्य गति के कुछ दुःखों का प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है और तिर्यंच गति के दुःख तो रात-दिन देखने में भी आते हैं, उनका कहाँ तक वर्णन करें ? जिज्ञासु मोक्षमार्गप्रकाशक तीसरा अध्याय पढ़कर अपनी जिज्ञासा शांत करें। मुक्ति का कारण -
दुःखतो बिभ्यता त्याज्या: कषाया: ज्ञान-शालिना।
ततो दुरित-विच्छेदस्ततो निर्वृति-सङ्गमः।।१८०।। अन्वय :- दुःखत: बिभ्यता ज्ञान-शालिना कषायाः त्याज्याः (सन्ति)। ततः दुरितविच्छेदः (भवति)। ततः निर्वृति-सङ्गमः (जायते)।
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