________________
योगसार प्राभृत
भावार्थ :- ज्ञानी जीव प्राप्त सुख-दुःख से राग-द्वेष-मोह नहीं करता, उनमें समताभाव ही रखता है । इसकारण ज्ञानी मात्र सुख-दुःख का ज्ञाता रहता है । समयसार ग्रन्थ में ज्ञानी के ज्ञान और वैराग्य का सामर्थ्य गाथा १९५ से १९७ तथा उनकी टीका, कलश एवं भावार्थ में बताया गया है, अतः इसे सूक्ष्मता से पढ़ने पर यह विषय स्पष्ट हो जायेगा ।
प्रवचनसार की गाथा ४३ भी इस विषय को समझने के लिये उपयोगी है।
ज्ञानी जीव अपने को मात्र ज्ञानस्वभावी मानता है; अतः उसे मोह नहीं होता। इसकारण कर्म ACT बंध भी नहीं होता । अज्ञानी की मान्यता इससे विपरीत रहती है ।
भूमिका के अनुसार होनेवाले रागादि परिणामों से होनेवाला नवीन बंध यहाँ होता ही है; तथापि यहाँ उसको गौण करके बात कही जा रही है।
१२८
कर्म एवं गति के कारणों का निर्देश
अन्वय :
-
कर्म गृह्णाति संसारी कषाय- परिणामतः ।
सुगतिं दुर्गतिं याति जीवः कर्म - विपाकतः ।। १७७।।
संसारी जीवः कषाय-परिणामत: कर्म गृह्णाति, (च) कर्म - विपाकतः सुगतिं
दुर्गतिं याति ।
सरलार्थ : :- संसारी - जीव कषायादि मोह परिणाम से कर्म को ग्रहण करता है अर्थात् कर्म को बाँधता है और पूर्व बद्ध कर्म के अनुभागोदय से सुगति तथा दुर्गति को प्राप्त होता है ।
भावार्थ :- राग-द्वेष - मोह परिणाम में रुचि रखनेवाला जीव संयोग में आये हुए पदार्थों में अज्ञानवश इष्टानिष्टबुद्धि रखकर मिथ्यात्व एवं क्रोधादि कषायरूप परिणत होता है। मोह परिणाम के निमित्त से नया पुण्य-पापरूप कर्म बाँधता है। पूर्वबद्ध अवस्था के कर्म की स्थिति पूर्ण होने पर कर्म के उदय का निमित्त पाकर सुख-दुःखरूप फल भोगते हुए जीव पुनः मोह-राग-द्वेष करता है और पुनः नवीन कर्म का बन्ध करता है। इसतरह परिणाम और कर्म तथा कर्म और परिणाम की परंपरा निमित्त-नैमित्तिकरूप से चालू रहती है ।
इसी विषय को पंचास्तिकाय संग्रह में आचार्य कुंदकुंद ने गाथा १२८ में निम्नानुसार बताया है"जो खलु संसारत्थो, जीवो तत्तो दु होदि परिणामो ।
परिणामादो कम्मं, कम्मादो होदि गदि - सुगदी ॥
गाथार्थ :• जो वास्तव में संसारस्थित जीव है, उससे परिणाम होता है (अर्थात् उसे स्निग्ध परिणाम होता है), परिणाम से कर्म और कर्म से गतियों में गमन होता है । " संसारी जीव की प्रवृत्ति -
सुतं दुर्गतिं प्राप्तः स्वीकरोति कलेवरम्। तत्रेन्द्रियाणि जायन्ते गृह्णाति विषयांस्ततः । । १७८ । ।
[C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/128]