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बन्ध अधिकार
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सरलार्थ :- कर्म का बन्ध प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग के भेद से चार प्रकार का जानना चाहिए, जो कि आत्मा को दुःख का कारण है।
भावार्थ :- प्रकृति बंध आदि चारों प्रकार के बंध को यहाँ दुःख का कारण कहा है। इसका अर्थ पापबंध के साथ-साथ पुण्यबंध को भी दुःख का ही कारण बताया है, यह समझ लेना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय के तीसरे सूत्र में बंध के चारों भेदों का कथन आया है। चारों बंधों का सामान्य स्वरूप -
निसर्गः प्रकृतिस्तत्र स्थिति: कालावधारणम् ।
सुसंक्लिप्तिः प्रदेशोऽस्ति विपाकोऽनुभवः पुनः ।।१५२।। अन्वय :- तत्र निसर्गः प्रकृतिः, कालावधारणं स्थिति:, सुसंक्लिप्ति: प्रदेशः, पुन: विपाक: अनुभवः अस्ति।
सरलार्थ :- उक्त चार प्रकार के कर्मबन्धों में कर्म के स्वभाव का नाम प्रकृतिबन्ध, कर्म के जीव के साथ रहने की कालावधि का नाम स्थितिबन्ध, कर्मों का जीव के प्रदेशों में संश्लेष हो जाने का नाम प्रदेशबन्ध और कर्म के फलदान शक्ति का नाम अनुभव/अनुभागबन्ध है।
भावार्थ :- कार्माणवर्गणाओं का कर्मरूप परिणमन होकर जीव के साथ रहनेरूप ये चारों बन्ध एक समय में ही होते हैं; इनमें एक के बाद एक होवे, ऐसा क्रम नहीं है। मात्र कारण की अपेक्षा से भेद जान सकते हैं कि योग के कारण प्रकृति और प्रदेशबन्ध होते हैं और कषाय से स्थिति और अनुभाग बन्ध होते हैं। कर्मबन्ध का स्वामी -
रागद्वेषद्वयालीढः कर्म बध्नाति चेतनः।
___ व्यापारं विदधानोऽपि तदपोढ़ो न सर्वथा ।।१५३।। अन्वय :- राग-द्वेषद्वयालीढः चेतनः कर्म बध्नाति तदपोढः (राग-द्वेषाभ्याम् अपोढ़ः) (योगस्य) व्यापारं विदधानः अपि न सर्वथा (कर्म बध्नाति)।
सरलार्थ :- राग-द्वेष-दोनों से सहित चेतन/आत्मा कर्म बांधता है और राग-द्वेष से रहित आत्मा मन-वचन-काय की क्रिया को करता हुआ भी कर्म का बन्ध किंचित् मात्र भी नहीं करता।
भावार्थ :- राग-द्वेष को एक शब्द से कहना हो तो मोह कह सकते हैं। अनेक स्थान पर शास्त्र में मोह-राग-द्वेष इन तीन शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। यहाँ कषाय में नोकषायों को गर्भित समझना आवश्यक है।
राग और द्वेष इन दोनों में सारा कषाय-नोकषायों का चक्र गर्भित है। इनमें से माया, लोभ, हास्य, रति और तीन वेद - ये सात रागरूप हैं और क्रोध, मान, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये छह द्वेषरूप है।
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