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बन्ध-अधिकार बन्ध का लक्षण -
पुद्गलानां यदादानं योग्यानां सकषायतः।
योगतःस मतो बन्धो जीवास्वातन्त्र्य-कारणम् ।।१५०।। अन्वय :- योग्यानां पुद्गलानां सकषायत: योगतः यत् आदानं स: बन्धः मतः (यत्) जीव-अस्वातन्त्र्य-कारणं (अस्ति)। - सरलार्थ :- कर्मरूप परिणमनेयोग्य कार्माणवर्गणारूप पुद्गलों का कषाय सहित योग से जीव. द्वारा जो ग्रहण होता है. उसको बन्ध कहते हैं. जो जीव की पराधीनता का कारण है।
भावार्थ :- पुद्गल के दो भेद हैं १. परमाणु, २. स्कन्ध । स्कन्ध को जिनवाणी ने २३ भेदों में विभाजित किया है, जिन्हें वर्गणा भी कहते हैं। उनमें एक भेद कार्माणवर्गणा है, जो जीव के मोह परिणाम का निमित्त पाकर कर्मरूप से परिणमित होती है। प्रत्येक परमाणु अथवा अन्य स्कन्ध कर्मरूप परिणमन नहीं कर सकता। अतः श्लोक में योग्यानां पुद्गलानां शब्द का प्रयोग किया है।
योग के कारण कार्माणवर्गणाएँ आती हैं और कषाय के कारण बन्ध होता है। कार्माणवर्गणारूप पुद्गल परमाणुओं का आत्म-प्रदेशों में आकर जो एकक्षेत्रावगाहरूप अवस्थान/संश्लेष संबंध होता है, उसे बन्ध कहते हैं। यह कर्म का बन्ध जीव की पराधीनता में निमित्त होता है। यही आशय आचार्य उमास्वामी ने भी तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय के दूसरे सूत्र में स्पष्ट किया है -
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः। सूत्रार्थ :- कषाय सहित होने से कर्म के योग्य पुद्गल परमाणुओं को जीव ग्रहण करता है, वह बन्ध है।
इसके विशेष स्पष्टीकरण के लिए आचार्य पूज्यपादकृत तत्त्वार्थसूत्र के इस सूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका अवश्य देखें। कर्मबन्ध के चार भेद -
प्रकृतिश्च स्थितिज्ञेयः प्रदेशोऽनुभवः परः।
चतुर्धा कर्मणो बन्धो दुःखोदय-निबन्धनम् ।।१५१॥ अन्वय :- कर्मण: बन्धः प्रकृतिः स्थिति: प्रदेशः अनुभव-परः च चतुर्धा ज्ञेयः (यत्) दुःखोदय-निबन्धनं (भवति)।
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