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________________ १६६ ये तो सोचा ही नहीं सफलता का रहस्य १६७ 85 इतना कहकर सन्त गर्व से सीना ताने पानी पर चलकर कुछ ही क्षणों में नदी के उस पार पहुँच गये । पुनः पानी पर चलकर ही वापिस आए और विवेकानन्द के सामने अहंकार की मुद्रा में खड़े हो गये। स्वामी विवेकानन्द ने पूछा - 'महात्मन् ! आपको इस भौतिक उपलब्धि की साधना में कितना समय लगा?' सन्त का उत्तर था - 'पूरे बारह वर्ष ।' विवेकानन्द ने कहा - 'जो काम एक-दो रुपया में हो सकता है उसके लिए आपने जीवन के अमूल्य बारह वर्ष खो दिए। यदि इन बारह वर्षों में आत्मा-परमात्मा की साधना-आराधना करते तो आप परमपद पर प्रतिष्ठित होते । यह भौतिक उपलब्धि भी कोई उपलब्धि है ? इससे आपको जो अहंकार हो गया, जानते हो अहंकार का फल क्या होगा ?" स्वामी विवेकानन्द की उक्त बोधकथा से सेठ लक्ष्मीलाल ने स्वयं तो यह सबक सीखा ही कि अपने जीवन का क्रीम टाइम खोकर नैतिक/ अनैतिक तरीकों से अपने भोग-विलास और नाम के लिए करोड़ों रुपया कमा लेना सचमुच कोई उपलब्धि नहीं है। हमें अपने अमूल्य समय और न्यायोपात्त धन का निस्वार्थ भावना से जनहित के कामों में ही सदुपयोग करना चाहिए। अन्त में अपने अध्यक्षीय भाषण में ज्ञानेशजी ने सफल व्यापारी की तुलना भ्रामरी वृत्ति और सिंह वृत्ति से की। उन्होंने कहा - "जिसतरह भौंरा फूलों को हानि पहुँचायें बिना उसका रस चूसता है, सिंह पेट भरने के बाद अनावश्यक शिकार नहीं करता, भले ही उसके चारों ओर हिरण आदि पशु घूमते रहें। इसी तरह सफल व्यापारी ग्राहक को हानि पहुँचायें बिना उचित मुनाफा ही लेता है। असफल व्यापारी की तुलना हम गिद्ध और बाघ से कर सकते हैं। जिसतरह बाघ पेट भर जाने के बाद भी क्रूर और हिंसक प्रवृत्ति के कारण पशुओं का शिकार कर-करके लाशें बिछा देता है, उसीतरह असफल व्यापारी नीति-अनीति की परवाह न कर पेट भरने के बाद भी पेटी भरने के लालच में संग्रह करता ही रहता है। यही परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान है।" सेठ लक्ष्मीलाल की ओर संकेत करते हुए ज्ञानेशजी ने मजाक के मूड़ में कहा - हम अभी तक लक्ष्मीलाल बनकर उसकी सेवा ही करते रहे अब - "हमें पुण्य और पुरुषार्थ से प्राप्त लक्ष्मी का लाल नहीं उसका कान्त बनना है, उसका सेवक नहीं स्वामीपना है । लक्ष्मीकान्त बनकर लक्ष्मी का सत्कार्यों में सही-सही उपयोग करना है। देखो, हम लोगों ने वर्तमान में हो रहे अपने भावों की समीक्षा द्वारा आर्त-रौद्र रूप खोटे भावों को दृष्टि में रखते हुए विचार-विमर्श किया, अपनी वर्तमान शुभ-अशुभ परिणति को समझने की कोशिश की तथा संसार-सागर में डूबने की कारणभूत इस शुभाशुभ परिणति से मुक्त होने के उपायों पर भी संक्षेप में चर्चा की। इसीप्रकार अपने ज्ञान को आत्मकेन्द्रित करके हम काम-क्रोधादि विकारों को नष्ट कर सकते हैं। यह धर्मध्यान का सुफल है। इसतरह हम कह सकते हैं कि जिसप्रकार सूर्य की विकेन्द्रित किरणें जब लेंस के द्वारा केन्द्रित कर ली जाती हैं तो उससे भोजन तो पक ही जाता है, सोलर आदि से पानी का टैंक भी गरम हो जाता है। उसीप्रकार जो व्यक्ति बहिर्मुखी मानसिक वृत्ति को अन्तर्मुखी बनाता है। पाँच इन्द्रियों
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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