________________
चौबीस
सफलता का रहस्य
विद्याश्रम में चल रहे शिक्षण शिविर के समापन के अवसर पर ज्ञानेशजी के उपकारों का उल्लेख करते हुए शिविर संचालक श्री लाभानन्द ने कहा - "चींटी की चाल (धीमी गति से) चलनेवाला व्यक्ति भी यदि सही दिशा में चल रहा हो तो देर-अवेर ही सही, पर कभी न कभी तो वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेता है। इसके विपरीत गरुड़ पक्षी की भाँति हवा की चाल चलनेवाला व्यक्ति भी यदि विपरीत दिशा में चल पड़े या प्रमाद में ही पड़ा रहे, चले ही नहीं तो वह कभी भी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता ।
भले ही ज्ञानेशजी बाल्यकाल से धर्म के क्षेत्र में चींटी की चाल चले, पर अविरल रूप से सही दिशा में चलते रहने से प्रौढ़ होते-होते अपने स्व-विवेक के सहारे संसार के टेढ़े-मेढ़े रास्तों को पार करके आखिर अपने लक्ष्य की सीमा रेखा तक पहुँच ही गये ।
1
ज्ञातव्य है, कार्य की सफलता में स्वयं का उत्साह, लगन, सम्पूर्ण समर्पण, सक्रियता और आत्मविश्वास का होना अनिवार्य है । इनके सिवाय सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है नैतिक सिद्धान्तों पर टिके रहना, समस्याओं के समाधान स्वयं खोजना तथा सही दिशा में पुरुषार्थ करते रहना ।
भली होनहार से ज्ञानेशजी को माता-पिता भी ऐसे संस्कारी और सरल स्वभावी मिले जो ज्ञानेश को स्वतंत्र निर्णय लेने में बाधक बिल्कुल नहीं बने। उन्होंने अपने पुत्रव्यामोह को अपने विवेक पर हावी नहीं होने दिया। समय-समय पर प्रसन्नता प्रगट करके ज्ञानेशजी की धार्मिक, सामाजिक और व्यापारिक गतिविधियों को प्रोत्साहित ही किया ।
84
सफलता का रहस्य
१६५
लाभानन्द ने अपने भाषण में आगे कहा- "ज्ञानेशजी यदि अपने अन्तर्मुखी उग्र पुरुषार्थ द्वारा अपने कर्तव्य पथ पर अडिग नहीं रहते, अपने दृढ़ संकल्प में अविचलित नहीं रहते तो कहीं भी भटक सकते थे। क्या-क्या संकट नहीं झेले उन्होंने ? कैसे-कैसे प्रतिकूल प्रसंग आये उनके सामने, फिर भी वे अपने लक्ष्य से विचलित नहीं हुए।
सच है विचारवान और कर्तव्य परायण व्यक्ति अपने गन्तव्य पथ में आये सुख-दुख की परवाह नहीं करते।"
आयोजन के विशिष्ठ अतिथि के रूप बोलते हुए सेठ लक्ष्मीलाल ने अपने वक्तव्य में कहा- “यद्यपि गृहस्थावस्था में आवश्यकतानुसार धनादि के संग्रह करने का निषेध नहीं, फिर भी उसके प्रति आसक्ति का निषेध तो है ही । मैं तो इसे ही सर्वस्व समझे बैठा था; ज्ञानेशजी ने एक बार ठीक ही कहा था कि यदि इस धन-दौलत के संग्रह करने में और इन्द्रियों के विषयों में आनन्द मानने रूप पापभावों में ही जीवन चला गया तो निश्चित ही नरक के दुःख भोगने होंगे। अतः जीवन के रह इनसे ममत्व कम करके शीघ्र ही आत्मा-परमात्मा की शरण में पहुँचना होगा। सचमुच यह भौतिक उपलब्धि कोई उपलब्धि नहीं है । उनके इस कथन से मेरी आँखें ही खुल गईं।"
सेठ लक्ष्मीलाल ने भौतिक उपलब्धि की निरर्थकता का बोध कराने वाली एक बोधकथा भी कही थी जो इसप्रकार है -
स्वामी विवेकानन्द नदी के किनारे खड़े नौका की प्रतीक्षा कर ही रहे थे कि - एक सन्त ने आकर उनसे पूछा - 'आप यहाँ बहुत देर से खड़े-खड़े किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ?"
विवेकानन्द ने कहा- 'मैं नौका की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।'
सन्त ने बड़े गर्व से कहा- 'इतने बड़े सन्त होकर इस दो टके के नाविक के आधीन हो ! मेरी भांति पानी के ऊपर चलने की साधना करके स्वाधीन क्यों नहीं हो जाते ?"