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ये तो सोचा ही नहीं मेरे ये कार्य शुभभावों की कोटि में भी नहीं आयेंगे, धर्म की बात तो बहुत दूर रही। ___ अनाथालय, विधवाआश्रम और महिला कल्याण केन्द्रों में रहनेवाले अनाथों को स्वावलम्बी बनाने के बजाय और उनका सही तरीके से भरण-पोषण करने के बजाय उनका शारीरिक, आर्थिक व मानसिक रूप से शोषण की ओर मेरा ध्यान ही नहीं गया।
यदि ये ट्रस्ट और संस्थाएँ सही ढंग से चलते रहें, अपने-अपने पावन उद्देश्यों की पूर्ति करते रहें तो शुभभाव होने से पुण्यबंध के कारण बनते हैं। जब तक वीतराग धर्म की प्राप्ति न हो सके। तबतक निस्वार्थ भाव और पावन उद्देश्य से ये ही कार्य करने योग्य है।
ज्ञानेश के ऐसे युक्तिसंगत और क्रान्तिकारी विचारों को स्मरण करते हुए सेठ लक्ष्मीलाल ने कहा - "ज्ञानेश के प्रवचनों से मेरा जीवन तो सुधरा ही, अन्य नवागंतुक श्रोता भी प्रभावित हुए तथा विराग के साथ आया उसका अनुज अनुराग का जीवन भी आमूलचूल बदल गया।"
एक बार की बात है - अहिंसा के पुजारी के रूप में प्रसिद्ध एक बहुत बड़े राजनेता जिन्होंने पशुवध बन्द करने का आन्दोलन छेड़ रखा था और जिन्हें इस बात का गर्व था कि 'मैं जीवों की रक्षा करता हूँ, कर सकता हूँ एक बार प्रसंगवश ज्ञानेश की सभा में पहुँच गये। संयोग से उस समय ज्ञानेश का व्याख्यान भी अहिंसा पर हो रहा था। वे कह रहे थे - “जो ऐसा मानता है कि - मैं किसी को बचाता हूँ, बचा सकता हूँ, वह मूढ है, अज्ञानी है।"
ज्ञानेशजी के भाषण का उक्त अंश सुनकर नेताजी को पहले तो बहुत ही अटपटा लगा, लगना ही चाहिए था; परन्तु जब पूरा व्याख्यान
ज्ञानेश तो सचमुच ज्ञानेश ही है सुना तो वे अहिंसा की गहराई को समझकर बहुत ही प्रभावित हुए और उन्होंने दूसरे दिन भी प्रवचन सुनने की भावना प्रकट की।
नेताजी ने मुस्करा कर अपने साथी-सहयोगियों से कहा - 'मैं उन संत का व्याख्यान पुनः सुनना चाहता हूँ जो मुझे कल मूढ़ कह रहे थे। 'सचमुच, कोई किसी को मार-बचा नहीं सकता है ? हम तो झूठा अहंकार ही करते हैं। हाँ, हमारे मन में मूक प्राणियों के प्रति जो दया का भाव या निर्दयता का भाव होता है; उससे पुण्य-पाप-बन्ध होता है।' उस संत की यह बात शत-प्रतिशत सत्य है। तुलसीदासजी ने भी तो यही कहा है - "हानि-लाभ जीवन-मरण, सुख-दुःख विधि के हाथ।"
अर्थात् जीवन में जो आर्थिक हानि-लाभ, जीवन-मरण और सुख-दुःख होते देखे जाते हैं, वे सब अपने-अपने पूर्वकृत पुण्य-पाप कर्मों के फल में ही होते हैं, इन अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ पैदा करना किसी अन्य व्यक्ति के हाथ में नहीं है। अन्य व्यक्ति तो निमित्त मात्र बनते हैं। वे कर्ता-धर्ता नहीं हैं।
इसप्रकार जो भी ज्ञानेश को सुनता, प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। ज्ञानेश को भी इस बात का संतोष था कि अध्यात्म की बात जन-जन तक पहुंच रही है। लोग अपने शुभ-अशुभ भावों को पहचान कर उस पर गंभीरता से विचार करते हैं कि - मेरे जो शुभ-अशुभ भाव होते हैं, इनका फल क्या होगा? हमने ये तो सोचा ही नहीं। यदि ज्ञानेश का सत्समागम न मिलता हो। हमें यह सन्मार्ग कैसे मिलता?