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ये तो सोचा ही नहीं विशेषताओं के कारण २५-२६ वर्ष जैसा लगता था। उसे अपने पिता धमेन्द्र द्वारा बचपन से ही नैतिकता का पाठ पढ़ाया गया था। इस कारण वह भारतीय संस्कृति और धार्मिक संस्कारों से ओत-प्रोत था।
-- कॉलेज में सहशिक्षा थी। छात्र-छात्रायें एकसाथ पढ़ते थे; परन्तु ज्ञानेश ने कभी किसी छात्रा की ओर आँख उठाकर नहीं देखा। अन्य छात्रों की भाँति छात्राओं से बात करने के मौके खोजना, उनके साथ घूमना-फिरना, होटल आना-जाना तो उसके लिए कल्पना से भी परे की बात थी। इस कारण अनेक चंचल स्वभाव की छात्राओं ने तो उसका नाम ही भोलानाथ रख लिया था; पर सुनीता उसके इन्हीं गुणों से प्रभावित थी। वह ज्ञानेश की इन्हीं विशेषताओं पर रीझ गई थी। वह ऐसे ही आदर्श जीवनसाथी की कल्पना अपने मन में संजोये थी।
परन्तु ज्ञानेश से बात करने की उसकी हिम्मत नहीं होती। क्या कहे ? कैसे कहे ? बात करने का कोई ठोस बहाना या आधार भी तो चाहिए न ? उसे भय था कि 'ज्ञानेश से बात करने से वह कहीं झिड़क न दे, सीसहेलियाँ उसकी हँसी न उड़ाने लगें, कोई देखेगा तो पता नहीं क्या-क्या मनगढन्त कल्पनायें करने लगेगा?' इसतरह न जाने कितने विकल्प उठा करते उसके मन में। ___संयोग से दोनों की कक्षायें भी अलग-अलग थीं। क्लासरूमों के रास्ते भी अलग-अलग थे। मिलने का सहज संयोग संभव नहीं था। मात्र वार्षिकोत्सव में ही एक मंच पर मिलना होता था।
सौभाग्य से इस वर्ष ज्ञानेश के हाथ में ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों का संचालन था और सुनीता को अपनी टीम के साथ नाटक का मंचन करना था। नाटक की निर्देशिका एवं नायिका स्वयं सुनीता थी। नाटक
प्रेम संबंध हों पर ऐसे के मंचन में सुनीता की प्रस्तुति प्रशंसनीय रही। सभी छात्रों को उसे बधाई देने के बहाने बात करने का मौका मिल गया । ज्ञानेश का मन भी हुआ - पर वह चाहते हुए भी संकोच में रह गया। परन्तु सुनीता ने ज्ञानेश के हाव-भाव से उसके मनोभावों को ताड़ लिया, अत: उसने ही हिम्मत करके ज्ञानेश से पूछ लिया - कैसा लगा हमारे नाटक का मंचन? ज्ञानेश का अति संक्षिप्त उत्तर था - "नाटक नाटक जैसा लगा।"
सुनीता ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा - "मैं कुछ समझी नहीं।"
ज्ञानेश ने पुन: एक वाक्य में ही उत्तर दिया - “इसमें न समझने जैसी बात ही क्या है ? नाटक नाटक की दृष्टि से बहुत अच्छा लगा।
नाटकों में नायक-नायिका का चरित्र तो आदर्श के रूप में ही प्रस्तुत किया जाता है। काश! पात्रों के यथार्थ जीवन-चरित्र भी ऐसे ही आदर्श हो जाएँ, तब तो फिर पृथ्वी पर ही स्वर्ग उतर आयेगा। परन्तु ..............
सुनीता ने अपनी सफाई में कहा – “यह सब जो आपने देखा, वह सब मेरा और मेरे परिवार का यथार्थ (सच्चाई) ही है। मैं दिखावे में विश्वास कम ही करती हूँ, जितने भी दृश्य आपने नाटक में देखे, वे सब मेरे पारिवारिक जीवन की यथार्थ कहानी हैं।" ___ ज्ञानेश ने कहा – “यदि ऐसा है तब तो अति उत्तम बात है। मुझे भी ऐसे ही चरित्र पसन्द हैं।"
सुनीता ज्ञानेश की पसन्दगी से कुछ-कुछ आशान्वित हुई। उसे लगा कि "धीरे-धीरे मैं ज्ञानेश के हृदय में अपना स्थान बना लूंगी।" इसी आशा से सुनीता ने ज्ञानेश को अपने बर्थ-डे पर आमंत्रित किया।
सुनीता का आमंत्रण पाकर ज्ञानेश सुनीता के बर्थ-डे पार्टी में