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आत्मकथ्य यदि हम चाहते हैं लोक-परलोक में सच्चा सुख, तो भूलकर भी दूसरों को कभी न पहुँचाओ दुःख। इसीलिए तो कहा है ऋषियों ने, मुनियों ने - 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्' दूसरों द्वारा दिया दुःख यदि हमें नहीं है स्वीकार - तो दूसरों को दुःख देने का हमें नहीं है अधिकार ।।१।।
जो अपने व पराये प्राण हनते और झूठ बोलते हर्षित होते हैं, चौर कर्म करते विषयों में रमते परिग्रह में आनंदित होते हैं। जो जुआ जैसे दुर्व्यसनों में रमते मदिरापान करते हैं, राग-द्वेषवर्द्धक वार्ताओं में ही दिन-रात रमते हैं। वे इन खोटे भावों के फल में रोगी शरीर का भार ढोते हैं, और पीड़ा चिन्तन करते हुए दिन-रात रोते हैं ।।५।।
-- सचमुच क्या हम पशुओं से गये बीते हैं? बुद्धिबल से बिल्कुल ही रीते हैं। नहीं, नहीं, कौन कहता है कि हम किसी से कम या अधूरे हैं, हम तो स्वभावतः सभी आत्मिक गुणों से भरे-पूरे हैं।। हाँ, हम अभी बिना तरासे चैतन्य हीरे हैं, तरासने की तैयारी कर रहे धीरे-धीरे हैं।।६।।
अध्यात्म के ज्ञान बिना हमारे मन में राग-द्वेष होते हैं। विषय सुखों में मग्न होकर हम मोहनींद में सोते हैं ।। सर्वोत्तम मानव जीवन को यों ही व्यर्थ खोते हैं। बुढ़ापे में अपनी करनी पर पछताते हैं और बिलख-बिलख रोते हैं ।। अन्तिम समय में दीन-दुःखी-असहाय होकर मृत्यु सेज पर सोते हैं। और इसी दुान के फलस्वरूप संसार सागर में खाते गोते हैं ।।२।।
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प्रत्येक काम करने के पहले प्रभू को याद करें, ईमानदारी से काम करने का संकल्प करें। परिश्रम करने में किंचित भी प्रमाद न करें, प्रसन्नता, उत्साह और समर्पण में कमी न करें। आज का काम आज ही करें कल पर न छोड़ें; काम को कठिन मानकर उसे करने से मुँह न मोड़ें।।७।।
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कोई भी व्यक्ति किसी अन्य का भला-बुरा नहीं करता है, व्यक्ति तो पर के सुख-दुःख में निमित्त मात्र बस बनता है। जो होना है वह निश्चित है अध्यात्म शास्त्रों में यह समझाया है, जिसने जैसा बीज बोया उसने वैसा फल पाया है। सृष्टि रचना के ये सिद्धान्त जब सभी धर्म बतलाते हैं, फिर क्यों हम अपने मानस में ईर्ष्या की आग जलाते हैं? ||३||
-- यदि सभी अध्यात्म शास्त्र यही संदेश देते है. जिन्हें हुआ आत्मज्ञान वे शीघ्र ही मुक्ति पद पाते हैं। आत्म ज्ञान बिना शास्त्र ज्ञान काम नहीं आता है, देवपूजा आदि नाना क्रिया-कर्म भी निरर्थक जाता है। जिसे आत्मज्ञान नहीं, भले वह शास्त्र समुद्र में लगा रहा गोता है, तो भी वह शास्त्रों का ज्ञाता नहीं, वह तो केवल रट्ट तोता है ।।४।।
हमने स्वयं अपराध किए और दूसरों को कोसा, ज्ञानी गुरुओं की वाणी पर किंचित् नहीं किया भरोसा। पहन रखा था हमने पर कर्तृत्व के अहंकार का चोगा, इसी कारण अबतक चतुर्गति का दुःख भोगा ।। देते रहे हम स्वयं को धोखा ही धोखा, ये सोचा ही नहीं इन भावों का फल क्या होगा? ||८॥
- पण्डित रतनचन्द भारिल्ल