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प्रस्तावना
|- पण्डित रतनचन्द भारिल्ल यदि आपके मन में ऐसा प्रश्न उठे कि - 'ऐसा क्या है इस कृति में - जिसके लिए अपना बहुमूल्य समय बर्बाद किया जाय' तो इस प्रस्तावना के चार पृष्ठ आप अवश्य पढ़ लें। संभव है ये पृष्ठ पढ़ते ही आपको पूरी पुस्तक पढ़ने का भाव जग जाय और आपको बहुत कुछ ऐसा ज्ञान मिल जाय, जिससे आप कह उठे कि 'ये तो सोचा ही नहीं तथा यह कृति आपके जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन ला दे, आपको आनन्द की अनुभूति से भर दे।
इस उपन्यास का एक-एक पात्र अपने जीवंत आचार-विचार से आपको कुछ न कुछ ऐसा संदेश देगा जो आपके लिए सुखद और सफल जीवन जीने को न केवल प्रेरित करेगा; बल्कि मार्ग दर्शन भी देगा।
वस्तुतः लौकिक सुखमय जीवन के लिए जितनी जरूरत पैसे की है, उससे कहीं अधिक आवश्यकता मानसिक संतुलन की है; क्योंकि मानवीय दुःख दो तरह के होते हैं - एक दैहिक दुःख और दूसरा मानसिक दुःख। पहला दुःख दूर करने का सम्बन्ध भौतिक अनुकूलताओं से है और दूसरा दुःख दूर करने का उपाय आध्यात्मिक ज्ञान है, जिसकी चर्चा इस कृति में की गई है।
यदि हम आर्थिक अनुकूलता के द्वारा भौतिक सुख और मानसिक शान्ति चाहते हैं तो हमें पुनर्जन्म में आस्था रखते हुए अहिंसक और सदाचारी जीवन जीना होगा। आजीविका हेतु भी ऐसे शुभ काम करने होंगे, जिनसे पुण्यार्जन हो । निर्दयता, बेईमानी छल-कपट धोखाधड़ी जैसे पाप परिणामों से हमें बचना ही होगा, अन्यथा इन परिणामों का फल तो मुख्यतया तिर्यंचगति है, जिसके दुःख हम प्रत्यक्ष देख ही रहे हैं।
पुण्य से धनादि के अनुकूल संयोग तो मिलेंगे ही, मानसिक संतोष भी मिलेगा। घर-बाहर में विश्वास बढ़ेगा और यशस्वी जीवन जीने के साथ हमें पारलौकिक आत्मकल्याण के निमित्त कारण भी मिलेंगे।
अफसोस यह है कि न जाने क्यों, हम मात्र वर्तमान जीवन को सुखद करने के प्रयत्नों में ही अपनी सम्पूर्ण शक्ति एवं समय झोंक रहे हैं, जबकि यही
जन्म सब कुछ नहीं है, इस जन्म के पहले भी हम थे और मृत्यु के बाद भी रहेंगे। यद्यपि इस जन्म में स्थिर आजीविका भी अतिआवश्यक है, इसके बिना परलोक सम्बन्धी आत्मोद्धार की बात सोचना असंभव नहीं तो कठिन तो है ही। अतः आजीविका का मुद्दा भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है, पर यही सब कुछ नहीं है। यदि इसे ही सब कुछ मान भी लिया जाय तो इसमें भी सफलता के लिए सद्भाग्य अपेक्षित है, और वर्तमान का सत्कर्म ही भविष्य के सद्भाग्य का निर्माता है, अतः इसके लिए भी अध्यात्मज्ञान का आलंबन अनिवार्य है।
यदि हम काम-क्रोध-मद-मोह आदि विकारों से मुक्त होना चाहते हैं, तो विश्व व्यवस्था को समझना होगा, चाहे वह विश्व व्यवस्था ऑटोमेटिक हो या ईश्वर कृत हो। दोनों ही स्थितियों में यह तो निश्चित ही है कि उस भले-बुरे कार्य के कर्ता हम तुम नहीं हैं, यदि ऐसा स्वीकार कर लिया जाये तो हमारे क्रोधादि विकार स्वतः समाप्त हो जायेंगे; क्योंकि जब हम दूसरों को अपने अहित का कर्ता मानते हैं, तो क्रोध आता है, हित का कर्ता मानते हैं तो उस पर प्रेम उमड़ता है, राग होता है। जब यह मान लिया जाय कि हम पर के कर्ता-हर्ता नहीं हैं और दूसरे हमारे सुख-दुःख के दाता नहीं है तो क्रोधादि होंगे ही नहीं।
यदि पुण्य-पाप पर ही विश्वास हो जाय तो भी अपने पुण्य-पाप के फलानुसार ही भला-बुरा हुआ। अड़ौसी-पड़ौसी फिर भी निरपराधी रहे। इस तरह वे किसी भी हालत में क्रोधादि के पात्र नहीं हैं। अतः लौकिक और पारलौकिक सुख-शान्ति के लिए उक्त सिद्धान्तों पर विचार करें, इन्हें अपनायें और सुख पायें।
अन्त में मैं इस कृति के प्रणयन के संदर्भ में भी समीक्षकों को यह बता देना चाहता हूँ कि - चि. शुद्धात्म प्रकाश ने अपने बिजनिस सेमीनार में ओजस्वी भाषण देते हुए जब नैतिक मूल्यों के संदर्भ में मेरी कृति "इन भावों का फल क्या होगा" का उल्लेख किया तो सहस्रों श्रोताओं में सहज जिज्ञासा हो गई और उनके द्वारा उक्त कृति की माँग आने लगी, परन्तु उक्त कृति में शास्त्रीय शब्दों के प्रयोग के कारण उन सामान्य पाठकों को पूरा विषय ग्रहण करने में बहुत कठिनाई हुई, अतः उनकी ओर से इसके सरलीकरण हेतु रूपान्तरण करने का प्रेसर आने लगा। ___रूपान्तर के प्रयास में अनेक नवीन नैतिक मानवीय मूल्यों का समावेश तो हो ही गया, लगभग सम्पूर्ण कृति का कायाकल्प भी हो गया। कृति का कायाकल्प होने जाने से इसका नाम रखा गया- ये तो सोचा ही नहीं। .