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प्रकाशकीय : (तृतीय संस्करण) अध्यात्मरत्नाकर, सिद्धान्तसूरि, लेखनी के जादूगर, जैनरत्न, शिक्षारत्न आदि अनेक उपाधियों से अलंकृत पण्डित रतनचन्द भारिल्ल की सरल सुबोध शैली में लिखित कृति 'ये तो सोचा ही नहीं नैतिक मूल्यों पर आधारित, अध्यात्मज्ञान की ओर अग्रसर करनेवाली अपने ढंग की अनूठी पुस्तक है । मात्र ६माह के अल्प समय में इसका तृतीय संस्करण प्रकाशित करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है। इसकी लोकप्रियता का इससे अधिक प्रमाण और क्या हो सकता है।
पुस्तक को पढ़ने के पहले यदि इसकी प्रस्तावना को पढ़ लिया जाय तो पूरी पुस्तक पढ़ने की प्रेरणा स्वतः मिल जायेगी। पुस्तकका प्रत्येक अध्याय आपको यह सोचने को बाध्य करेगा कि- 'अरे! ये तो हमने सोचा ही नहीं।' इससे पाठकों को बहुत कुछ ऐसी नवीन जानकारी प्राप्त होगी. जिसके विषय में पाठकों ने कभी सोचा ही नहीं होगा, गंभीरता से विचार किया ही नहीं होगा।
चारों गतियों और चौरासी लाख योनियों में मानव जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है, उसमें भी स्वस्थ शरीर, सोचने की शक्ति, उत्तम कल एवं अध्यात्म रुचि की प्राप्ति अति दुर्लभ है, सौभाग्य से वे सब साधन हमें सहज सुलभ हो गये हैं, परंतु उसका बहुभाग रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या-सुलझाने में ही चला जाता है।
यद्यपि लोक में यह भी एक ऐसी अनिवार्य आवश्यकता है, जिसके बिना परलोक के कल्याण की बात सोचना असंभव नहीं तो कठिन तो है ही। फिर भी सोचना तो पड़ेगा ही, अन्यथा पता नहीं यह दुलर्भता से प्राप्त चिन्तामणि सा बहुमूल्य मानव जीवन संसार सागर में कहाँ डूब जाय? यह भी तो विचारणीय है।
इसके अतिरिक्त इस कृति से आवश्यक मार्गदर्शन भी प्राप्त होगा, एतदर्थ आप इस कृति को अवश्य पढ़ें।
-ब्र. यशपाल जैन, एम.ए. प्रकाशन मंत्री : श्री टोडरमल स्मारक भवन, ए-४, बापूनगर जयपुर-१५