SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 23 ये तो सोचा ही नहीं "हम जैसे हैं, वैसा न सोचें और न वैसा ही बोलें, बल्कि हम जो बनना चाहते हैं, जैसा बनना चाहते हैं वही सोचें, वही बोलें। ऐसा सोचने से एक दिन हम वैसे ही बन जायेंगे। दूसरों को भी वही कहें, जैसा आप उन्हें बनाना चाहते हैं; क्योंकि यही बात दूसरों पर भी लागू होती है। अत: हम अपने पुत्र, पुत्री, पत्नी आदि पूरे परिवार को एवं दुनिया को भी जैसा देखना चाहते हैं, उन्हें जैसा बनाना चाहते हैं, उनके बारे में वही सोचें, वही बोलें। वे भी एक दिन तुम्हारे सोचे और बोले अनुसार बन जायेंगे। अत: उनके विषय में भी निगेटिव कभी न बोले । यही बात उपर्युक्त मंत्रों में प्रोग्रामिंग की गई है। हमारा यह चिन्तन चिन्तामणि रत्न है, हमारी यह बोली मनोवांछित फल देने वाली कामधेन है। यह न केवल धार्मिक श्रद्धा का विषय है. बल्कि यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है। उदाहरणार्थ - मान लो कि - हमारे बेटा, बेटी आदि क्रोधी हैं, जिद्दी हैं, पढ़ते नहीं हैं, समय पर सोकर नहीं उठते, झूठ बोलते हैं। आप उनकी इन आदतों से परेशान हैं, दु:खी हैं और उन्हें सुधारना चाहते हैं; इसके लिए यदि हम उसे वर्तमान सत्य के आधार पर मूर्ख, जिद्दी, हठी, नालायक, क्रोधी आदि कहकर डाँटते हैं, पीटते हैं, दूसरों के सामने भी यही सब कहकर उसे अपमानित करते हैं, शिक्षकों से शिकायत करते हैं, नतीजा यह होता है कि बालक-बालिकायें सुधरने के बजाय बिगड़ते जाते हैं, विद्रोही हो जाते हैं, बेशर्म हो जाते हैं - ऐसा हम प्रत्यक्ष देखते हैं और हम इस कारण तनाव में रहने लगते हैं, हमें आकुलता और अशान्ति होती है, हम दुःखी हो जाते हैं। वस्तुतः हमें वर्तमान तथ्य को न कहना चाहिए और न मन में सोचना ही चाहिए; क्योंकि - हम जो सोचते हैं, जो कहते हैं, वही हमारे अवचेतन मन में अर्द्ध जाग्रत मन में अंकित हो जाता है। जो तथ्य एवं सत्य को समस्या मत बनने दो अवचेतन मन में अंकित होता है, वह वहाँ से चेतन मन में, जाग्रत मन में आ जाता है। जो चेतन मन में आता है, वही वाणी में व्यक्त होता है; पुन: वाणी से अवचेतन मन में, वहाँ चेतन में; चेतन मन से फिर वाणी में। इसप्रकार, इस दुःखद दुष्चक्र का सिलसिला एकबार प्रारंभ हुआ तो लम्बे काल तक चलता ही रहता है। यह मनोविज्ञान का सिद्धान्त है, अत: हम जैसा नहीं चाहते, वैसा कभी न बोलें, कभी न सोचें। हमारे शरीर में दो मन होते हैं एक चेतन मन, दूसरा अवचेतन मन । सर्वप्रथम हम जो सुनते हैं, बोलते हैं या सोचते हैं, वह पहले हमारे अवचेतन (सबकान्सस माइन्ड) में फीड होता है। फिर वह बात चेतन मन के माध्यम से वाणी में आती है। इसे हम कम्प्यूटर के उदाहरण से समझ सकते हैं। जवान (जीभ) शरीर रूपी कम्प्यूटर का 'की'-बोर्ड है, जिसतरह 'की'-बोर्ड पर उंगलियाँ चलाने से मेटर रेम में, फिर सेव करने पर हार्डडिस्क में फीड होता है, फिर स्क्रीन पर आता है। इसी प्रकार जो बोलते हैं, वही लघु मस्तिष्क में अंकित होता है, वहाँ से वही बड़े मस्तिष्क में आता है और जो मन में होता है, वही वाणी में आता है। यदि शराब कारखाने में बन गई तो बाजार में आयेगी ही, बाजार में आई शराब पेट में भी जायेगी ही, पेट में गई तो माथे में भन्नायेगी ही, अत: यदि आप चाहते हैं कि वह माथे में न भन्नाये तो कारखाने के उत्पादन पर ही रोक लगानी होगी। बस, इसीलिए तो कहते हैं कि हम जैसा दूसरों को देखना पसंद नहीं करते, वैसा उसे कभी न बोलें, आप जैसा जिसे देखना चाहते हैं, वैसा ही बोलें, तभी जीवन में सुख-शान्ति होगी। दूसरी बात - हमें अपना दृष्टिकोण, अपना सोच सदैव सकारात्मक रखना होगा। एक ही घटना को, एक ही तथ्य को भिन्न भिन्न व्यक्तियों
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy