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तथ्य एवं सत्य को समस्या मत बनने दो
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ये तो सोचा ही नहीं कारण उन्होंने एक साधारण से परिवार में जन्म लेकर और साधारण स्नातक (सिम्पल ग्रेजुएट) होकर भी अपने जीवन का ऐसा चतुर्मुखी विकास कर लिया है। हम जैसे साधारण व्यक्ति के द्वारा यह सब संभव नहीं है। यह तो ज्ञानेशजी जैसा व्यक्ति ही कर सकता है, हम तो सामान्य जन हैं. साधारण प्राणी हैं. यह सब हमसे नहीं हो सकता।' परन्तु आप का यह सोचना सही नहीं है। मुझमें ऐसा कुछ भी नहीं है। मैं भी आप लोगों जैसा ही बहुत ही साधारण व्यक्ति हूँ। यदि मुझे कुछ सुख-शान्ति और संतुष्टि मिली है तो उसके पीछे कुछ सामान्य से सिद्धान्त हैं, साधारण-सी सरल बातें हैं, जिन्हें कोई भी अपना सकता है और अपने जीवन की रिक्तता को सुख-शान्ति से भर सकता है। यदि यही गॉडगिफ्ट है तो यह आप सबको भी उपलब्ध है।
सुख-दुःख दोनों दो तरह के होते हैं - एक मानसिक, दूसरा शारीरिक । समस्या शारीरिक दुःख की नहीं है, यह तो शुद्ध सात्विक खान-पान, थोड़ा-सा श्रम और नियमित दिनचर्या से दूर किया जा सकता है। शारीरिक सुख-दुःख में हमारे पूर्वकृत पुण्य-पाप का भी योगदान होता है। जिसने पूर्व में जो भले-बुरे कर्म किए हैं, उन कर्मों का फल तो भुगतना ही पड़ेगा।
सबसे बड़ी समस्या तो मानसिक सुख-दुःख की है। इसके लिए सर्वप्रथम तो हमें अध्यात्म की शरण में आना आवश्यक है, अत: 'धम्मं शरणं गच्छामि' का संकल्प लेना होगा। ___ यहाँ 'धर्म' से मेरा तात्पर्य आपको किसी क्रियाकाण्ड में उलझाने से नहीं है। कोरा क्रियाकाण्ड धर्म की परिभाषा में आता भी नहीं है। मैं तो आपको यह बताना चाहता हूँ कि जिसप्रकार आग का धर्म उष्णता है, पानी का धर्म शीतलता है, उसीप्रकार जीव-आत्मा का धर्म क्षमा है, समता, शान्ति, सरलता, सत्य एवं दया आदि है और राग-द्वेष,
घृणा, छल-कपट, हिंसा, झूठ-चोरी -क्रूरता आदि अधर्म हैं, पाप है। धर्म प्राप्त करने एवं अधर्म त्यागने के कुछ सिद्धान्त हैं, कुछ फार्मूला हैं, उन्हें अपनाना होगा। उन्हीं में से आज कुछ चुनिन्दा तथ्यों की चर्चा आपसे हम इस सेमीनार में करना चाहते हैं। ____ एक संत अपने शिष्यों को समझा रहे थे कि - "दुनिया में कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता; यदि कोई पूर्ण होता तो फिर वह मानव नहीं देवता होता, जीवात्मा नहीं परमात्मा होता। परमात्मा के सिवाय इस जगत में कोई पूर्ण नहीं है, कोई भी निर्दोष नहीं है। यदि हम मानवों की कमियों को या दोषों को ही देखते रहेंगे तो कभी सुखी नहीं हो सकते; क्योंकि परिवार में और कर्मचारियों में कोई न कोई कमी तो होती ही है। अत: हमारे परिजन-पुरजन वर्तमान में जैसे हैं, उनको वैसा न समझें, बारम्बार वैसा ही अनुभव न करें, बल्कि हम दूसरों को जैसा बनाना चाहते हैं, वैसा ही जाने, वैसा ही माने, और वैसा ही
कहें।
___ तात्पर्य यह है कि हम अपने और उनके मस्तिष्क में ऐसा प्रोग्रामिंग करें जैसा हम उसे बनाना चाहते हैं। हमारे पुराण इसके साक्षी हैं। पुराणों में लिखा है - "मानव को प्रतिदिन प्रातः-शाम एकान्त में बैठकर मन में ऐसा चिन्तन करना चाहिए, वाणी से ऐसा ही बोलना चाहिए कि - शुद्धोऽहं, बुद्धोऽहं, निरंजनोऽहं, निर्विकारोऽहं अर्थात् मैं शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, काम-क्रोध एवं राग-द्वेष विकारों से रहित निर्विकार हूँ।" ___ यहाँ प्रश्न हो सकता है कि - यद्यपि वर्तमान में हममें राग-द्वेष हैं, कषायों की कलुषता है, हम शुद्ध नहीं हैं, बुद्ध अर्थात् ज्ञानी भी नहीं हैं, निर्विकार भी नहीं हैं, फिर हमें ये मंत्र बोलने को क्यों कहा गया है ?