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________________ 19 ये तो सोचा ही नहीं ज्ञान को खूब निर्मल किया । ज्ञान के प्रचार-प्रसार को गति प्रदान करने के लिए पूरे उत्साह के साथ नवीन-नवीन योजनाएँ प्रस्तुत की। शास्त्रीजी को ज्ञानेश की योजनाएँ बहुत पसन्द आयीं। सचमुच शास्त्रीजी को ज्ञानेश जैसा सक्रिय, उत्साही और प्रतिभाशाली शिष्य पाकर भारी हर्ष था। योजनाएँ तो उत्तम थी ही, इस काम के लिए शास्त्रीजी अपनी पूरी चल-अचल सम्पत्ति धर्म प्रचार-प्रसार में ही समर्पित कर देना चाहते थे। उनकी भावना के अनुसार धीरे-धीरे उनके साधारण से आवास ने दिनेश विद्या आश्रम नाम से शिक्षण-संस्थान का रूप ले लिया। सर्वप्रथम वहाँ आध्यात्मिक शिक्षण-शिविरों की श्रृंखला का शुभारम्भ हुआ। लोग दूर-दूर से इन शिक्षण-शिविरों का लाभ लेने हेतु आने लगे। ज्ञानेश द्वारा उन शिविरार्थियों को पढ़ाने के लिए कक्षाओं की सुनियोजित व्यवस्था की गई और शिक्षक भी तैयार किये गये। वह धर्मरूप वटबीज ज्ञानेश के सद्प्रयासों से धीरे-धीरे विशाल वटवृक्ष के रूप में पल्लवित होता चला गया; जिसकी चतुर्दिक फैली बड़ी-बड़ी शाखाओं की शीतल छाया में सहस्रों श्रोता नियमित धर्मलाभ लेने लगे। अच्छे अवसर द्वार खटखटाते हैं तो गृहस्थी के चक्कर में पड़ा ही क्यों ? उस बेचारी सुनीता को अपने प्यार के चक्कर में क्यों फंसाया ? अब पारिवारिक उत्तरदायित्वों से पलायन करना भी तो पाप ही है न ?” धनेश ने धर्म की कटु आलोचना करते हुये आगे कहा - "हालाँकि मेरी पत्नी धनश्री भी मेरे इन विचारों और आदतों से परेशान रहती है, झिकझिक भी वह बहुत करती है। धर्म-पत्नी जो ठहरी। 'धर्म' का तो चक्कर ही कुछ ऐसा है; जिसके साथ भी यह 'धर्म' नाम जुड़ जाता है; उसे तो परेशान होना ही होना है। तुम स्वयं ही देख लो न! 'धर्म' के चक्कर में पड़ते ही फँस गये न चिन्ताओं के चक्कर में। धर्म की तो क्या, हम तो धंधे की भी चिन्ता नहीं करते। अरे! जितने दिन की जिंदगी है, उतने दिन मस्ती में ही क्यों न जियें । अन्त में तो हम सबको यहीं मिट्टी में मिलना ही है।" ज्ञानेश को धनेश की नास्तिकता पूर्ण बातें सुनकर झुंझलाहट तो बहुत हुई; पर वह मन मारकर रह गया। __वह सोचने लगा - "एक नहीं, अनेक विषयों में निपुण और तकनीकी विद्या में पारंगत व्यक्ति धर्म के संबंध में इतना अनजान कैसे? हाँ, ज्ञानियों ने ठीक ही कहा है - प्रत्येक विषय को जानने की ज्ञान की योग्यता स्वतंत्र होती है। अब तो वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक परीक्षणों से भी यह बात सिद्ध हो चुकी है कि बुद्धिमान व्यक्ति की बुद्धि भी हर क्षेत्र में एक जैसा कार्य नहीं करती। एक विषय के विशेषज्ञ व्यक्ति दूसरे विषय में सर्वथा अनभिज्ञ भी देखे जाते हैं; क्योंकि प्राप्तज्ञान में जिस विषय को जानने की योग्यता होती है; वही विषय उस ज्ञान के जानने में आ सकता है, अन्य नहीं। एक बहुत बड़े वैज्ञानिक के बारे में कहा जाता है कि उसे इतनी मोटी बात समझ में नहीं आ रही थी कि - एक ही रास्ते से दो (छोटी -- ___ ज्ञानेश को विचारों में डूबा देख धनेश ने कहा “कहो भाई ज्ञानेश! किन विचारों में डूबे हो ? क्या सोच रहे हो ? व्यर्थ के सोच-विचार में अपना माथा खराब क्यों करते रहते हो। ____ अरे भाई ज्ञानेश ! कहाँ वे बहत्तर वर्षीय बूढ़े-बाबा दिनेशचन्द्र शास्त्री और कहाँ तू पच्चीस वर्ष का हट्टा-कट्टा जवान ? ये दिन तो तेरे मौजमस्ती करने के हैं, सैर-सपाटे करने के हैं, खूब कमाओ और खूब खर्च करो, हँसी-खुशी के साथ सपरिवार सुख से जिओ। क्या ये दिन इसतरह शरीर सुखाने के हैं ? वाह भाई वाह ! यदि यही सब करना था
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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